सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

कविता : बेहतर हो बागों में बहार ही कहिये

इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद
देशसेवा के लिए पत्रकारिता में
राष्ट्रवाद पर शोध ग्रंथ लिखकर
प्रोफेसर बने महोदय ने अपनी
कक्षा में विद्यार्थियों से कहा कि
सरकारी मंशा पर सवाल उठाना
पत्रकार का काम ही नहीं है
यह काम विपक्षी दल करता है
विपक्षी दल की खबर लिखना
पत्रकार का काम ही नहीं है
सेना-जवान का गुणगान करिये
बहुसंख्यक धर्म का बखान करिये
धर्मगुरुओं का यशोगान करिये
तंत्र पर कब्जाधारी कुछ भी करें
तुम तो हमेशा वाह-वाह करिये
किसी की संपत्ति कैसे भी बढ़ी
तुम उत्थान का बखान करिये
मौत का क्या है आ ही जाती है
जज की मौत पर न सवाल करिये
बेसिन से यदि गैस चुरा ले कोई
ऐसी चोरियों पर ध्यान न दीजिए
कमाया है धन देशहित में उसने
उसकी देशभक्ति का मान रखिये
जानवरों में गाय को माता मानिए
इन्हें छू दे कोई तो हाहाकार करिये
इनकी रक्षा में मरने वाले शहीद हैं
इन्हें मारने वाले को शैतान कहिये
गिर जाय गर बनता हुआ पुल कोई
इसे विपक्षी दल की चाल कहिये
बढ़ जाये गर ई-रिक्शे की बिक्री
इसे देश में बढ़ता रोजगार कहिये
पकौड़े तलना भी है कारोबार ही
ऐसो को उद्यमियों में शुमार करिये
बेरोजगारी पर कोई सवाल उठाए
उसको देश का बड़ा गद्दार कहिये
फ़ोटोशाप से कमाल ऐसा करिये
पूर्व पीएम को बड़ा अय्यास कहिये
देश की सभी विसंगतियों के लिए
एक परिवार को जिम्मेदार कहिये
होता है कुछ भी अच्छा देश में यदि
सत्तर सालों में पहली बार कहिये
खराब जो कुछ भी है इस देश में
कुछ नहीं हुआ 70 साल में कहिये
साहब गले पड़ें तो संस्कार कहिये
कोई और करे तो कुसंस्कार कहिये
मुक्त करना उनकी मानसिकता है
इसे कतई भी तानाशाही न कहिये
वैदिक हिंसा हिंसा न भवति कहिये
वाह क्या संस्कृति है ख्याल रखिये
पढ़कर नौकरी ही करनी है तुमको
तो मेरी बातों को गांठ बांध लीजिये
साधन साध्य से बड़ा नहीं होता है
ये ज्ञान की बात भी जान लीजिए
सूखे बाग को सूखा नहीं ही कहिये
बेहतर हो बागों में बहार ही कहिये
@ ओमप्रकाश तिवारी

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

कविता/सवाल

कुछ पसंद नहीं आना मन का उदास हो जाना बेमतलब ही गुस्सा आना हां न कि भी बातें न करना हर पल आंखें बंद रखना रोशनी में आंखें मिचमिचना बिना पत्तों वाले पेड़ निहारना गिरते हुए पीले पत्तों को देखना भाव आएं फिर भी कुछ न लिखना अच्छी किताब को भी न पढ़ना किताब उठाना और रख देना उंगलियों से कुछ टाइप न करना उगते सूरज पर झुंझला पड़ना डूबते सूरज को हसरत से देखना चाहत अंधेरे को हमसफ़र बनाना खुद को तम में विलीन कर देना ये हमको हुआ क्या जरा बताना समझ में आये तो जरा समझना गीत कोई तुम ऐसा जो गाना शब्दों को सावन की तरह बरसाना बूंद बूंद से पूरा बदन भिगो देना हसरतों को इस कदर बहाना चलेगा नहीं यहां कोई बहाना #ओमप्रकाश तिवारी

रवींद्र कालिया और ममता कालिया को जनवाणी सम्मान

इटावा हिंदी निधि न्यास की ओर से आठ नवंबर को सोलहवें वार्षिक समारोह में मशहूर साहित्यकार रवींद्र कालिया और ममता कालिया को जनवाणी सम्मान दिया जाएगा। न्यास इस समारोह में रंगकर्मी एमके रैना (श्रीनगर), आईएएस अधिकारी मुकेश मेश्राम (लखनऊ), जुगल किशोर जैथलिया (कोलकाता), डॉ. सुनीता जैन (दिल्ली), विनोद कुमार मिश्र (साहिबाबाद), शैलेंद्र दीक्षित (इटावा), डॉ. पदम सिंह यादव (मैनपुरी), पं. सत्यनारायण तिवारी (औरैया), डॉ. प्रकाश द्विवेदी (अंबेडकर नगर), मो. हसीन 'नादान इटावी` (इटावा) के अलावा इलाहाबाद के पूर्व उत्तर प्रदेश महाधिव ता वीरेंद्र कुमार सिंह चौधरी, पत्रकार सुधांशु उपाध्याय और चिकित्सक डॉ. कृष्णा मुखर्जी को सारस्वत सम्मान देगी।

ख्वाजा, ओ मेरे पीर .......

शिवमूर्ति जी से मेरा पहला परिचय उनकी कहानी तिरिया चरित्तर के माध्यम से हुआ। जिस समय इस कहानी को पढ़ा उस समय साहित्य के क्षेत्र में मेरा प्रवेश हुआ ही था। इस कहानी ने मुझे झकझोर कर रख दिया। कई दिनों तक कहानी के चरित्र दिमाग में चलचित्र की तरह चलते रहे। अंदर से बेचैनी भरा सवाल उठता कि क्या ऐसे भी लोग होते हैं? गांव में मैंने ऐसे बहुत सारे चेहरे देखे थे। उनके बारे में तरह-तरह की बातें भी सुन रखी थी लेकिन वे चेहरे इतने क्रूर और भयावह होते हैं इसका एहसास और जानकारी पहली बार इस कहानी से मिली थी। कहानियों के प्रति लगाव मुझे स्कूल के दिनों से ही था। जहां तक मुझे याद पड़ता है स्कूल की हिंदी की किताब में छपी कोई भी कहानी मैं सबसे पहले पढ़ जाता था। किताब खरीदने के बाद मेरी निगाहें यदि उसमें कुछ खोजतीं थीं तो केवल कहानी। कविताएं भी आकर्षित करती थी लेकिन अधिकतर समझ में नहीं आती थीं इसलिए उन्हें पढ़ने में रुचि नहीं होती थी। यही हाल अब भी है। अब तो कहानियां भी आकर्षित नहीं करती। वजह चाहे जो भी लेकिन हाल फिलहाल में जो कहानियां लिखी जा रही हैं वे न तो पाठकों को रस देती हैं न ही ज्ञान। न ही बेचैन कर...