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बिहार के सियासी शोकगीत की हकीकत

बिहार में नीतीश कुमार के महागठबंधन का साथ छोड़कर भाजपा के साथ सरकार बनाने को बहुत सारे लोग सही बता रहे हैं। ऐसे लोग किसी हद तक सही हो भी सकते थे यदि वह यह नहीं कहते कि नीतीश कुमार ने अपनी बेदाग छवि बचाने के लिए ऐसा किया है। चूंकि लालू प्रसाद यादव के बेेटे और सरकार में उप मुख्यमंत्री रहे तेजस्वी यादव पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा है तो वह सरकार नहीं चला पा रहे थे। इस्तीफा देने के बाद नीतीश ने कहा भी कि कफन में थैली नहीं होती और लालच की कोई सीमा नहीं होती और लोकतंत्र लोकलाज से चलता है। यह भी कहा जा रहा है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने सरकार बचाने की कोशिश नहीं की। उन्होंने लालू का समर्थन किया, जिसका मतलब है कि भ्रष्टाचार का समर्थन करना। नीतीश ने इस्तीफा दिया तो पीएम नरेंद्र मोदी ने ट्विट करके बधाई दी। कहा कि भ्रष्टाचार की लड़ाई में उनका स्वागत है।

दरअसल, यह सारे तर्क अपनी सुविधानुसार गढ़े गए हैं। यह सब वैसे ही है जैसे अपराध करने वाला अपने पक्ष में तर्क देता है। हकीकत यह है कि नीतीश कुमार महागठबंधन में सहज नहीं थे। उनकी मनमानी नहीं चल रही थी। बाजवजूद इसके कि डीएम से लेकर एसपी तक वहीं लगा रहे थे और उनकी अनुमति के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल रहा था कि वह बाहर यही प्रचारित करा रहे थे कि बिहार में गुंडाराज है और उसकी वजह लालू यादव हैं। जब एसपी और डीएम नीतीश के और मुख्यमंत्री नीतीश तो अपराध के लिए जिम्मेदार लालू और उनकी पार्टी कैसे? नीतीश इसलिए असहज थे कि अगले चुनाव तक गठबंधन की दूसरी पार्टियां अपना जनाधार बना सकती थीं। ऐसे में नीतीश का जनाधार कम हो सकता था। जोकि हो भी रहा था। इसलिए नीतीश महा गठबंधन से निकलने का रास्ता खोज रहे थे। पहले नोटबंदी का समर्थन करके फिर विपक्ष के राष्ट्पति उम्मीदवार को समर्थन न देकर उन्होंने गठबंधन तोडऩे की जुगत निकाली लेकिन गठबंधन की दूसरी पार्टियों ने उनकी इस चालाकी पर समझदार दिखाई और उन्हें मौकापरस्ती का मौका नहीं दिया। तेजस्वी पर आरोप लगने के बाद जरूर लालू यादव और कांग्रेस चूक गए। यदि वह तेजस्वी का इस्तीफा दिलवा देते तो इतनी जल्दी नीतीश को मौकापरस्ती का मौका नहीं मिलता। लेकिन यह तय था कि नीतीश महा गठबंधन से पल्ला झाडऩे वाले थे। इसकी एक वजह यह भी थी कि केंद्र सरकार बिहार सरकार को धन देने में आनाकानी कर रही थी। जिससे प्रदेश सरकार के कामकाज पर असर पड़ रहा था। दूसरे नीतीश को नापसंद करने वाले उनकी ही पार्टी में बढ़ते जा रहे थे। ऐसे में नीतीश को अपने लिए एक सुरक्षित पनाहगाह तलाशना जरूरी हो गया था। नीतीश जैसे नेता कभी विचार और सिद्धांत की राजनीति नहीं करते हैं। ऐसे नेता हमेशा अपनी सुविधा की मौकापरस्ती की ही राजनीति करते हैं। जानने वाले जानते हैं कि नीतीश जब समता पार्टी बनाए थे तो सीपीआई एमल के साथ थे। उससे उनका स्वार्थ पूरा हुआ तो भाजपा की गोद में चले गए। वामपंथ का साथ छोड़कर दक्षिणपंथी पार्टी के साथ गलबहियां डालकर सरकार चलाते रहे। बाद में सेकुलर नेता बनने का शौक चर्चाया तो मोदी को कोसने लगे। ऐसे में विपक्ष को लगा कि नीतीश को लेकर वह भाजपा विरोध की राजनीति कर सकता है। लेकिन यही उसकी भूल थी। यदि नीतीश के मौकापरस्ती की राजनीति को वह समझा होता तो नीतीश के साथ महागठबंधन नहीं बनाता। गटबंधन बनाता भी तो उसे नेतृत्व नहीं सौंपता।
दरअसल, नीतीश कुमार चाहते थे कि कांग्रेस और समूचा विपक्ष उन्हें अगले लोकसभा चुनाव के लिए प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बना दे। विपक्ष ने ऐसा नहीं किया और नीतीश ने विपक्ष का साथ छोड़ दिया। यह उनके लिए अधिक सुविधाजनक था।
रही बात भ्रष्टचार की तो इसका विरोध तो किया ही जाना चाहिए। लेकिन अन्ना आंदोलन की तरह नहीं। हमारे राजनीतिक दल भ्रष्टाचार का विरोध तो करते हैं, लेकिन जब यही उनके अपने नेता पर लगता है तो अच्छा लगने लगता है। किस पार्टी में नहीं हैं भ्रष्टाचारी और अपराधी नेता? पनामा पेपर में इतने लोगों के नाम आए लेकिन केंद्र सरकार ने एक पर भी कार्रवाई नहीं की। क्या यह भ्रष्टाचार नहीं है? पद और पैसे देकर सरकार बनाना, पार्टी तोडऩा और नेता खरीदना क्या भ्रष्टचार नहीं है? अब केंद्र सरकार ने कितने राज्यों में ऐसा किया है सभी जानते हैं। नीतीश कुमार को फिर मुख्यमंत्री बनाया तो क्या यह सदाचवार है? इसमें भी तो कदाचार ही किया गया है। नीतीश कुमार और भाजपा यदि इतने ही दूध के धुले हैं तो विधानसभा का चुनाव करा लेते। बिना चुनाव कराए सरकार बना लेना क्या यह कादाचार नहीं है?
कौन कितना दूध का धुला है इस आंकड़े से समझ सकते हैं। हाल ही में हुए राष्ट्रपति चुनाव से पहले एसोसिएशन ऑफ डमोक्रेटिक रिफॉर्म (एडीआर) ने एक पिपोर्ट जारी की थी। इस रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रपति चुनाव में करीब 34 प्रतिशत दागी छवि के नेता ने अपने मताधिकार का उपयोग किया। एडीआर ने देशभर के 1675 सांसद और विधायकों की पृष्ठभूमि का अध्ययन करने के बाद यह रिपोर्ट तैयार की थी। देश के कुल 4896 में से 4852 सांसद और विधायकों के चुनावी हलफनामों के आधार पर अध्ययन किया था। इस अध्ययन में पाया गया कि देश के 1581 सांसद और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। इनमें से 993 के खिलाफ गंभीर श्रेणी के मामले हैं। यदि आप दूध के धुले हैं तो इनका समर्थन क्यों लिया? यही नहीं यह आपकी पार्टी और मंत्रिमंडल में कैसे बने हुए हैं? इसे कहते हैं गुड़ खकर गुगुले से परहेज करना। जो अपने को सूट करे वह सदाचार और जो न करे वह कदाचार।
एडीआर के अध्ययन में सामने आया कि भारतीय जनता पार्टी के 1675 नेताओं में 523 पर आपराधिक मामले चल रहे हैं। 337 भाजपा नेताओं पर गंभीर श्रेणी के मामले दर्ज हैं। इसी तरह कांग्रेस के 945 नेताओं के हलफनामों का अध्ययन किया गया तो पता चला कि 248 पर आपराधिक मामले चल रहे हैं। इनमें से 141 मामले गंभीर श्रेणी के हैं। आम आदमी पार्टी के 90 नेताओं में से 26 पर आपराधिक मामले दर्ज़ है, जिनमें से 14 पर गंभीर श्रेणी के हैं। चुनाव आयोग को दिए 4852 सांसद और विधायकों के हलफनामों के अनुसार 87 नेताओं पर हत्या से संबंधित मामले चल रहे हैं। इसमें नीतीश कुमार भी शामिल हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि नीतीश कुमार और उनके समर्थन देने वाले कितने सदाचारी हैं।
कहते हैं कि राहुल गांधी ने नीतीश को नहीं रोका। जाने वाले को कोई रोक सका है क्या? नीतीश को तो जाना ही था। वह तो बहाना कब से खोज रहे थे। यदि तेजस्वी इस्तीफा दे भी देते तो भी नीतीश भाजपा की गोद में चले थे। इसका संकेत उन्होंने नोटबंदी का समर्थन करके ही दे दिया था। मीडिया के सहारे लालू की छवि खराब करके अधिक समय तक वह भी अपनी छवि नहीं बनाए रख सकते थे। फिर भाजपा से मिले प्रलोभन को छोडऩा भी उनके जैसे आदमी के लिए वश की बात नहीं थी।

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