सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

कैसे करें क्राइम रिपोर्टिंग

मीडिया की विश्वसनीयता को बचाएं

विकास के साथ हमें विसंगतियां भी मिल रही हैं। एक तरफ हमारे समाज में सम्पन्नता बढ़ रही है दूसरी ओर गरीबी और असमानता भी बढ़ रही है। ऐसे में समाज में अपराधों का होना लाजिमी है। मीडिया में इन्हीं अपराधों को भुनाने के लिए हाे़ड लगी रहती है। सबसे पहले के च कर में कुछ का कुछ प्रसारित कर दिया जाता है। जिससे केवल और केवल सनसनी फैलती है। इससे टीवी चैनलों का चाहे भला हो जाए लेकिन समाज का भला तो कतई नहीं होता। यही हाल प्रिंट मीडिया का भी है। आम आदमी प्रिंट मीडिया से उम्मीद करता है कि उसमें टीवी चैनलों से कुछ अलग होगा। लेकिन अपराध की खबरें यहां भी पुलिस के बयान पर आधरित होती हैं। जिनको छापने का कोई मतलब नहीं होता। टीवी चैनलों के रिपोर्टर यदि जल्दी दिखाने के च कर में खबर की तह तक नहीं जाते तो प्रिंट मीडिया के संवाददाता मेहनत से बचते हैं। किसी मामले में पुलिस जो कहा उसे ही छाप दिया जाता है। ऐसी खबरों में देखा गया है कि संवाददाता पुलिस अधिकारी से केस से संबंधित सवाल तक नहीं करते। ऐसा इसलिए होता है कि योंकि वह मान चुकेहोते हैं कि पुलिस जो कह रही है वही सही है। जबकि अधिकतर मामलों में ऐसा नहीं होता। कई मामलों में पुलिस दबाव में होती है। इसी कारण वह मीडिया को गुमराह करती है। कई मामलों में तो वह मीडिया का इस्तेमाल करती है। पत्रकार भी इसलिए इस्तेमाल होते हैं योंकि वह खबरों के लिए पुलिस पर निर्भर होते हैं। यही नहीं जैसे राजनीति और अपराध जगत में गठबंधन हो गया है वैसा ही मीडिया और पुलिस में देखने को मिलता र्है।

- इसे इस कहानी से समझ सकते हैं।

पुलिस एक आदमी को गिरफ्तार करती है। उसे वह आतंकवादी बताती है। उसके पास हथियार भी दिखा देती है। पुलिस कहती है कि उसने पूछताछ में स्वीकार किया है कि उसका फला मामले में हाथ है।

- पहली नजर में यह कहानी सही लगती है। लेकिन यह सच नहीं हो भी सकता है। हो सकता है कि पुलिस ने युवक को किसी रंजिश में गिरफ्तार किया हो? यह भी हो सकता है कि पुलिस पर ऐसा करने के लिए दबाव हो?

- ऐसे केस में रिपोर्टर या करें?

१-पुलिस के बयान के साथ वह गिरफ़तार किए गए व्यि त से भी बात करे। उसके बयान को भी लिखे।
२-गिरफ्तार किए गए व्यि त की हैसियत, बैकग्राउंड, सामाजिक आधार को ध्यान में रखते हुए जांच करे और पुलिस से सवाल करे।
३-गिरफ्तार किए व्यि त का पुलिस रिकार्ड भी देखा जाए।
४-पुलिस का बयान, व्यि त का बयान, सामाजिक आधार और पुलिस रिकार्ड के बाद ऐसी खबर निकलेगी जो पुलिस की कहानी से जरूर अलग होगी। यदि नहीं होती है तो अच्छी बात है लेकिन यदि होती है तो पुलिस का तिकड़म सामने आ जाएगा।
५-खबर पर नजर रखें और एक अंतराल के बाद फालोअप जरूर करें। बेहतर स्टोरी निकल कर सामने आएगी।

जान लें
-----
िछले दिनों पुलिस ने एक युवक को आतंकी बताकर हिरासत में लिया। जबकि वह आतंकी नहीं था। वह किसी संगठन से जु़डा था। उसे कुछ लोग सबक सिखाना चाहते थे। उन्होंने पुलिस को हथियार बनाया। यह तो समय रहते पुलिस के इस खेल का पता चल गया और लोगों ने धरना-प्रदर्शन करके दबाव बनाकर युवक को जमानत पर रिहा करवा लिया लेकिन पुलिस ने केस तो डाल ही दिया है।

- मीडिया में वही छपा जो पुलिस ने कहा। यह नजरिया कितना घातक और खतरनाक है। समाज, देश और मीडिया के लिए भी। मीडिया की विश्वसनीयता ही उसकी पूंजी है और आज यही दांव पर लग गई है। इसे बचाएं।





टिप्पणियाँ

Unknown ने कहा…
अच्‍छी जानकारी है। बताते रहें।

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

उपन्यासकार जगदीश चंद्र को समझने के लिए

हिंदी की आलोचना पर यह आरोप अकसर लगता है कि वह सही दिशा में नहीं है। लेखकों का सही मूल्यांकन नहीं किया जा रहा है। गुटबाजी से प्रेरित है। पत्रिकाआें के संपादकों की मठाधीशी चल रही है। वह जिस लेखक को चाहे रातों-रात सुपर स्टार बना देता है। इन आरोपों को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता। आलोचना का हाल तो यह है कि अकसर रचनाकर को खुद ही आलोचना का कर्म भी निभाना पड़ता है। मठाधीशी ऐसी है कि कई लेखक अनदेखे रह जाते हैं। उनके रचनाकर्म को अंधेरी सुरंग में डाल दिया जाता है। कई ऐसे लेखक चमकते सितारे बन जाते हैं जिनका रचनाकर्म कुछ खास नहीं होता। इन्हीं सब विवादों के बीच कुछ अच्छे काम भी हो जाते हैं। कुछ लोग हैं जो ऐसे रचनाकारों पर भी लिखते हैं जिन पर व त की धूल पड़ चुकी होती है। ऐसा ही सराहनीय काम किया है तरसेम गुजराल और विनोद शाही ने। इन आलोचक द्वव ने हिंदी साहित्य के अप्रितम उपन्यासकार जगदीश चंद्र के पूरे रचनाकर्म पर किताब संपादित की। जिसमें इन दोनों के अलावा भगवान सिंह, शिव कुमार मिश्र, रमेश कंुतल मेघ, प्रो. कुंवरपाल सिंह, सुधीश पचौरी, डा. चमन लाल, डा. रविकुमार अनु के सारगर्भित आलेख शामिल हैं। इनके अल

मधु कांकरिया को मिला कथाक्रम सम्मान-2008

मधु कांकरिया ने मारवाड़ी समाज से ताल्लुक रखते हुए भी उसके दुराग्रहों से बाहर निकलकर लेखन किया है। यह चीज उन्हें अन्य मारवाड़ी लेखिकाआें से अलग करती है। यह बात वरिष्ठ कथाकार और हंस के संपादक राजेंद्र यादव ने राय उमानाथ बली प्रेक्षाग्रह में पश्चिम बंगाल की लेखिका मधु कांकरिया को आनंद सागर स्मृति कथाक्रम सम्मान प्रदान करने के बाद कही। इस प्रतिष्ठापूर्ण सम्मान के साथ ही कथाक्रम-२००८ के दो दिवसीय आयोजन का आगाज हुआ। मधु को प्रख्यात आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी, वरिष्ठ कथाकार राजेंद्र यादव और कथाकार गिरिराज किशोर ने शॉल, स्मृति चिह्न और १५ हजार रुपये का चेक देकर पुरस्कृत किया। मधु कांकरिया खुले गगन के लाल सितारे, सलाम आखिरी, पत्ताखोर और सेज पर संस्कृति उपन्यासों के जरिये कथा साहित्य में पहचानी जाती हैं। इसके पहले कथाक्रम सम्मान संजीव, चंद्र किशोर जायसवाल, मैत्रेयी पुष्पा, कमलकांत त्रिपाठी, दूधनाथ सिंह, ओमप्रकाश वाल्मीकि, शिवमूर्ति, असगर वजाहत, भगवानदास मोरवाल और उदय प्रकाश को दिया जा चुका है। राजेंद्र यादव ने कहा, 'मारवाड़ी लेखिकाआें में महत्वपूर्ण नाम मन्नू भंडारी, प्रभा खेतान, अलका सरावगी औ

ख्वाजा, ओ मेरे पीर .......

शिवमूर्ति जी से मेरा पहला परिचय उनकी कहानी तिरिया चरित्तर के माध्यम से हुआ। जिस समय इस कहानी को पढ़ा उस समय साहित्य के क्षेत्र में मेरा प्रवेश हुआ ही था। इस कहानी ने मुझे झकझोर कर रख दिया। कई दिनों तक कहानी के चरित्र दिमाग में चलचित्र की तरह चलते रहे। अंदर से बेचैनी भरा सवाल उठता कि क्या ऐसे भी लोग होते हैं? गांव में मैंने ऐसे बहुत सारे चेहरे देखे थे। उनके बारे में तरह-तरह की बातें भी सुन रखी थी लेकिन वे चेहरे इतने क्रूर और भयावह होते हैं इसका एहसास और जानकारी पहली बार इस कहानी से मिली थी। कहानियों के प्रति लगाव मुझे स्कूल के दिनों से ही था। जहां तक मुझे याद पड़ता है स्कूल की हिंदी की किताब में छपी कोई भी कहानी मैं सबसे पहले पढ़ जाता था। किताब खरीदने के बाद मेरी निगाहें यदि उसमें कुछ खोजतीं थीं तो केवल कहानी। कविताएं भी आकर्षित करती थी लेकिन अधिकतर समझ में नहीं आती थीं इसलिए उन्हें पढ़ने में रुचि नहीं होती थी। यही हाल अब भी है। अब तो कहानियां भी आकर्षित नहीं करती। वजह चाहे जो भी लेकिन हाल फिलहाल में जो कहानियां लिखी जा रही हैं वे न तो पाठकों को रस देती हैं न ही ज्ञान। न ही बेचैन कर