सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

खंडन-मंडन और विखंडन की सियासत

उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में एक जनसभा को संबोधित करते हुए यूपी की मुख्यमंत्री मायावती ने कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के दलित प्रेम को ढोंग करार दिया। मायावती ने कहा, राहुल जब किसी दलित के घर जाते हैं तो लौटकर नहाते हैं। धूप और अगरबत्ती से उनका शुद्धिकरण किया जाता है। मायावती के इस वार पर कांग्रेस का कहना है कि सच्चाई इससे उलट है। राहुल के बारे में इस तरह का बयान दुर्भाग्यपूर्ण है। केंद्रीय गृह राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल का कहना है कि उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री या बयान देती हैं। यह उनका अधिकार है, पर सच्चाई इसके बिलकुल उलट है। नेहरू-गांधी परिवार के दिल में दलितों के प्रति संवेदना है। यह बात वह दावे के साथ कह सकते हैं कि इस परिवार से ज्यादा कोई दलितों का हितैषी नहीं है।

इस सियासी दावे-प्रतिदावे का मतलब साफ है कि यह सब दलित वोट बैंक के लिए किया जा रहा है। गौरतलब है कि इधर राहुल गांधी दलितों में अपनी एक छवि बना रहे हैं। उन्होंने पिछले दिनों अपने संसदीय क्षेत्र अमेठी के जवाहर पुरवा गांव में एक दलित परिवार के साथ रात गुजारी थी। राहुल ने इस परिवार के साथ रात का खाना खाया और सुबह का नाश्ता भी किया था। इस खबर को मीडिया में प्रमुखता से स्थान मिला। इसके बाद राहुल गांधी इटावा के अमीनाबाद गांव में एक ही दलित परिवार के कई सदस्यों की हत्या के बाद वहां पहुंचे। उन्होंने परिवार के लोगों को ढांढस बंधाया और दलित बच्ची को अपने कंधे पर बैठाकर गांव में घूमे। इस खबर को भी मीडिया ने स्थान दिया। इसके बाद राहुल गांधी उड़ीसा केदौरे पर गए। वहां उनका निशाना दलित और आदिवासी गांव रहे। युवा सांसद ने कोरापुर गांव की दलित बस्ती में लोगों से मुलाकात की और उनके साथ दोपहर का भोजन किया।
वैसे तो कांग्रेस का दलित प्रेम काफी पुराना है। आपातकाल में शिकस्त के बाद इंदिरा गांधी पटना के बेलची गांव गई थीं। इस गांव में एक ही परिवार के कई सदस्यों की हत्या की गई थी।
जाहिर है कि कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी अपने खानदान की पुरानी नीति पर ही चल रहे हैं। उनके लिए यह सब इसलिए भी जरूरी हो गया है, योंकि दलित कांग्रेस से अलग हो गए हैं। पिछले दिनों कुछ राज्यों में हुए चुनाव में मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने कांग्रेस को काफी नुकसान पहुंचाया है। यही नहीं कई जगहों पर तो बसपा ही कांग्रेस की हार का प्रमुख कारण भी बनी। यही नहीं उत्तर प्रदेश में तो जातिवादी राजनीति के कारण कांग्रेस का सूफड़ा ही साफ हो गया है। लाख कोशिशों के बावजूद उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पांव नहीं जम पा रहे हैं। ऐसे में कांग्रेस की मजबूरी है कि वह दलितों को अपनी तरफ आकर्षित करे। लेकिन कांग्रेस में यह काम कौन करे? उसके पास ले देकर एक ही नेता है। वह हैं राहुल गांधी। सो उन्होंने पार्टी की तरफ दलितों को खींचने के लिए अपने छवि निर्माण में लग गए।
जाहिर है कि इससे नुकसान मायावती का ही होना है। यदि बसपा के उत्तथान से कांग्रेस को नुकसान हो रहा है तो कांग्रेस की तरफ यदि दलित चले गए तो मायावती की दुकान बंद होना लाजिमी है। ऐसे में उनका बौखलाना स्वाभाविक ही है।
मायावती का राहुल गांधी पर ताजा हमला छवि विखंडन की सियासत का बेहतर नमूना है। एक तरफ राहुल गांधी अपनी छवि दलित समर्थक बना रहें तो मायावती उन्हें उनका विरोधी साबित करने में लग गइंर् हैं। जाहिर सी बात है कि यह खंडन-मंडन और विखंडन की सियासत यही नहीं रुकने वाली।

टिप्पणियाँ

संतराम यादव ने कहा…
omprakash ji, yeh hamare pradesh aur desh ka durhagya hai ki hamare rajneta jo kuchh bhi karte hain sirf vote bank ke liye.kisi ko daliton ke utthan se koi matlab nahin hai. aaj daliton kepaas rahne ko ghar nahin hai aur mayawati karoron ke mahal banwa rahi hain. rahul ji hain to voh yahi nahin samajh pa rahe hain ki dikhawe se daliton ka bhala hone wala nahin hai unhen siksha, rojgaar aur behatar medical suvidha ki jaroorat hai. darasal ye neta log yehi nahin chahte. ye to janta ko sirf gumrah kar apna ulloo sidha karna chahte hain. rahi baat uttar pradesh ki to wahan vikash ke naam par kuchh nahin ho raha hai. pradesh men kuchh bhi badalne wala nahin hai, badalte hain to sirf dalal aur janta hai ki chah kar bhi kuchh kar nahin sakti kyonki unhen jati aur dharm ke naam par is tarah bargla diya gaya hai ki voh in dalalon ko hi apna rahanum mant baithi hai.

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

उपन्यासकार जगदीश चंद्र को समझने के लिए

हिंदी की आलोचना पर यह आरोप अकसर लगता है कि वह सही दिशा में नहीं है। लेखकों का सही मूल्यांकन नहीं किया जा रहा है। गुटबाजी से प्रेरित है। पत्रिकाआें के संपादकों की मठाधीशी चल रही है। वह जिस लेखक को चाहे रातों-रात सुपर स्टार बना देता है। इन आरोपों को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता। आलोचना का हाल तो यह है कि अकसर रचनाकर को खुद ही आलोचना का कर्म भी निभाना पड़ता है। मठाधीशी ऐसी है कि कई लेखक अनदेखे रह जाते हैं। उनके रचनाकर्म को अंधेरी सुरंग में डाल दिया जाता है। कई ऐसे लेखक चमकते सितारे बन जाते हैं जिनका रचनाकर्म कुछ खास नहीं होता। इन्हीं सब विवादों के बीच कुछ अच्छे काम भी हो जाते हैं। कुछ लोग हैं जो ऐसे रचनाकारों पर भी लिखते हैं जिन पर व त की धूल पड़ चुकी होती है। ऐसा ही सराहनीय काम किया है तरसेम गुजराल और विनोद शाही ने। इन आलोचक द्वव ने हिंदी साहित्य के अप्रितम उपन्यासकार जगदीश चंद्र के पूरे रचनाकर्म पर किताब संपादित की। जिसमें इन दोनों के अलावा भगवान सिंह, शिव कुमार मिश्र, रमेश कंुतल मेघ, प्रो. कुंवरपाल सिंह, सुधीश पचौरी, डा. चमन लाल, डा. रविकुमार अनु के सारगर्भित आलेख शामिल हैं। इनके अल

मधु कांकरिया को मिला कथाक्रम सम्मान-2008

मधु कांकरिया ने मारवाड़ी समाज से ताल्लुक रखते हुए भी उसके दुराग्रहों से बाहर निकलकर लेखन किया है। यह चीज उन्हें अन्य मारवाड़ी लेखिकाआें से अलग करती है। यह बात वरिष्ठ कथाकार और हंस के संपादक राजेंद्र यादव ने राय उमानाथ बली प्रेक्षाग्रह में पश्चिम बंगाल की लेखिका मधु कांकरिया को आनंद सागर स्मृति कथाक्रम सम्मान प्रदान करने के बाद कही। इस प्रतिष्ठापूर्ण सम्मान के साथ ही कथाक्रम-२००८ के दो दिवसीय आयोजन का आगाज हुआ। मधु को प्रख्यात आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी, वरिष्ठ कथाकार राजेंद्र यादव और कथाकार गिरिराज किशोर ने शॉल, स्मृति चिह्न और १५ हजार रुपये का चेक देकर पुरस्कृत किया। मधु कांकरिया खुले गगन के लाल सितारे, सलाम आखिरी, पत्ताखोर और सेज पर संस्कृति उपन्यासों के जरिये कथा साहित्य में पहचानी जाती हैं। इसके पहले कथाक्रम सम्मान संजीव, चंद्र किशोर जायसवाल, मैत्रेयी पुष्पा, कमलकांत त्रिपाठी, दूधनाथ सिंह, ओमप्रकाश वाल्मीकि, शिवमूर्ति, असगर वजाहत, भगवानदास मोरवाल और उदय प्रकाश को दिया जा चुका है। राजेंद्र यादव ने कहा, 'मारवाड़ी लेखिकाआें में महत्वपूर्ण नाम मन्नू भंडारी, प्रभा खेतान, अलका सरावगी औ

ख्वाजा, ओ मेरे पीर .......

शिवमूर्ति जी से मेरा पहला परिचय उनकी कहानी तिरिया चरित्तर के माध्यम से हुआ। जिस समय इस कहानी को पढ़ा उस समय साहित्य के क्षेत्र में मेरा प्रवेश हुआ ही था। इस कहानी ने मुझे झकझोर कर रख दिया। कई दिनों तक कहानी के चरित्र दिमाग में चलचित्र की तरह चलते रहे। अंदर से बेचैनी भरा सवाल उठता कि क्या ऐसे भी लोग होते हैं? गांव में मैंने ऐसे बहुत सारे चेहरे देखे थे। उनके बारे में तरह-तरह की बातें भी सुन रखी थी लेकिन वे चेहरे इतने क्रूर और भयावह होते हैं इसका एहसास और जानकारी पहली बार इस कहानी से मिली थी। कहानियों के प्रति लगाव मुझे स्कूल के दिनों से ही था। जहां तक मुझे याद पड़ता है स्कूल की हिंदी की किताब में छपी कोई भी कहानी मैं सबसे पहले पढ़ जाता था। किताब खरीदने के बाद मेरी निगाहें यदि उसमें कुछ खोजतीं थीं तो केवल कहानी। कविताएं भी आकर्षित करती थी लेकिन अधिकतर समझ में नहीं आती थीं इसलिए उन्हें पढ़ने में रुचि नहीं होती थी। यही हाल अब भी है। अब तो कहानियां भी आकर्षित नहीं करती। वजह चाहे जो भी लेकिन हाल फिलहाल में जो कहानियां लिखी जा रही हैं वे न तो पाठकों को रस देती हैं न ही ज्ञान। न ही बेचैन कर