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मुंबई, देश निकाला और राज ठाकरे

वरिष्ठ कथाकार धीरेंद्र अस्थाना का उपन्यास देश निकाला पढ़ रहा था तो उसी दौरान मंुबई में राज ठाकरे उत्तर भारतीयों के खिलाफ बयान देकर मंुबई को हिंसा की आग में झोक दिया था। देश निकाला की पृष्ठ भमि मंुबई की है और इस उपन्यास का लेखक उत्तर भारतीय है। जिस संवेदना से मंुबई के बारे में लेखक ने लिखा है उसे शायद राज ठाकरे न समझ सकें। इस रचना की समालोचना करते समय पहली किस्त को इसी लिए राज ठाकरे के कारनामों से जाे़डकर देखा गया है। जिसका मकसद उपन्यास की समालोचना के साथ राज ठाकरे के कृत्य की समीक्षा करना भी है।


यह अजीब संयोग रहा है कि जब मुंबई में राज ठाकरे के गुंडे उत्तर भारतियों के खिलाफ हिंसा पर उतर आए थे और राज ठाकरे विषवमन कर रहे थे, तब मैं नया ज्ञानोदय के फरवरी २००८ अंक में प्रकाशित वरिष्ठ कथाकार धीरेन्द्र अस्थाना का उपन्यास 'देश निकाला` पढ़ रहा था। वैसे तो राज ठाकरे की हरकतों और इस उपन्यास में कोई साम्य नहीं है, लेकिन कुछ बातें हैं जो एक दूसरे से जु़डती हैं। मसलन, शीर्षक को ही ले लिया जाए। अस्थाना जी ने पुरुष की दुनिया (देश) से औरत को खारिज किए जाने का अपने उपन्यास की विषयवस्तु बनया है और शीर्षक दिया है 'देश निकाला`। पुरुष के देश से औरत को देश निकाला ही मिलता है। ऐसे ही राज ठाकरे की मुंबई से उतार भारतीयों को देश निकाला दिया जा रहा है। मुंबई जो भारत में है और भारत जो हर भारतीय का है। ऐसे में यह कहना कि मुंबई केवल महाराष्ट्रियों की ही है। तानाशाही ही नहीं देशद्रोह भी है।
भारत क्षेत्रीय फूलों से गुंथी एक माला है और इसी रूप में वह सुरक्षित है। इस माला से यदि एक भी फूल टूटता है तो उसकी सुंदरता और अखंडता खंडित हो जाएगी। फिर भारत एक देश नहीं रह सकता। क्षेत्रीय अस्मिता तभी तक अच्छी लगती है जब तक वह राष्ट ्रीयता को खंडित नहीं करती। यदि वह ऐसा करने लगती है तो उसका उपचार जरूरी हो जाता है। ऐसे लोगों पर अविलंब राष्ट ्रद्रोह का मामला दर्ज किया जाना चाहिए।
आव्रजन यानी एक स्थान से दूसरे स्थान को पलायान इस दुनिया यानी मानव सभ्यता का शाश्वत नियम है। यदि ऐसा न होता तो आज हम भूमंडलीकरण और ग्लोबवर्ल्ड की बात न करते। मानव हमेशा ही अपने विकास के लिए एक जगह से दूसरी जगह पलायन करता रहा है। जब किसी स्थान या क्षेत्र के संशाधनों पर कुछ लोगों का कब्जा हो जाता है तो अन्य लोगों के लिए वहां से पलायन ही अंतिम विकल्प बचता है।
ऐसे लोग अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करते हुए भटकते हैं और जहां रोजी-रोटी की व्यवस्था हो जाती है वहां टिक जाते हैं। ऐसे में स्थानीय और बाहरी संघर्ष आरंभ हो जाता है। स्थानीय लोगों को लगता है कि बाहर से आने वाले लोग उसका हक मार रहे हैं। इसी मानसिकता को चालक सियासत दा लोग हवा देते हैं। यही राज ठाकरे कर रहे हैं। पहले यही उनके चाचा बाल ठाकरे कर चुके हैं। अब राज ठाकरे उनके पदचिन्हों पर हैं। सफल न बाल ठाकरे हुए न राज ठाकरे होंगे। कुछ जख्म बाल ठाकरे ने दिए थे कुछ राज ठाकरे दे जाएंगे।
बहरहाल, अब धीरेंद्र अस्थाना के उपान्यास की बात करते हैं। अस्थाना जी अपने उपन्यास देश निकाला में खिलते हैं कि -चलना मुंबई का चरित्र है। जानते हैं, मुंबई की लोकल ट्रेनों में चलने वाली गायन मंडलियों के बीच कौन सा गाना अकसर गाया जाता है? तू न चलेगा तो चल देंगी राहें। मंजिल को तरसेंगी तेरी निगाहें। तुझको चलना होगा। तुझको चलना होगा। जाहिर है मुंबई के इस चरित्र निर्माण में महाराष्टि ्रयों का अकेला योगदान नहीं है। मुंबई को उत्तर भारतीयों और अन्य लोगों ने भी अपने खून पसीने से सींचा है। मुुंबई फिल्मी दुनिया है। लेकिन इस दुनिया में कितने लोग मुंबई के हैं। कथित बाहरी लोगों को यदि निकाल दिया जाए तो मुंबई से फिल्मी दुनिया उजड़ जाएगी। मुंबई से उत्तर भारतियों को निकाल दिया जाए तो देश की आर्थिक राजधानी का खिताब मुंबई से छिन जाएगा। फिर किस पर गर्व करेंगे राज ठाकरे। मुंबई पर केवल राज ठाकरे को ही गर्व नहीं होता, मुंबई पर हर भारतीय को गर्व होता है। जैसे आगरा के ताजमहल और दिल्ली की कुतुबमीनार और लाल किला, इलाहबाद का संगम, वाराणसी और हरिद्वार के गंगा घाट।
वर्ष २००६ जुलाई माह (२६-२७) में मुंबई में ऐसी बारिश हुई कि हाहाकार मच गया। मुंबई वासियों ने ऐसी तबाही का मंजर शायद ही कभी देखा होगा। अस्थाना जी अपने उपन्यास में इस बारिश का विशेष उल्लेख करते हैं। कैसी विसंगति है कि शहर को संघाई बनाने का सपना। बारिश के पानी में कागज की नाव बनकार भटक रहा है। भारी बारिश और लोकल जाम, मुंबई के लिए नया नहीं है लेकिन अब पहली बार मुंबई वासी खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं।
आगे तबाही के मंजर का चित्रात्मक वर्णन करते हुए अस्थाना जी लिखते हैं कि चारों तरफ अंधेरा, फोन खामोश, टीवी रेडियो बंद। सड़कों और घरों में कमर कमर तक पानी। गाडियां बंद। लोग अपनी कारों के भीतर बीच सड़क पर डूबकर मर गए और दिवारें गिर गइंर्। चट्ट ानें खिसक गइंर्। मकान ढग गए, पीने का पानी और खाने को अन्न नहीं। हर तरफ हाहाकार पर हिंदुस्तान को जिस शहर पर कोहेनूर की तरह अभिमान था वह कैसे भयावह भंवरों के बीच अनाथ शिशु की लाश सा पानी पर डोल रहा है। समुद्र की छाती पर मुंबईकरों के सपने शव की तरह पड़े हैं। यह धीरेंद्र अस्थाना की भाषा है जिसका कोई जवाब नहीं और जो पढ़ने वाले को दीवाना बना देती है। यह उनकी भाषा की ही ताकत है कि वह अपने पाठकों को ऐसा बांधते हैं कि उनहें पढ़ने वाला अभिभूत हो जाता है। वैसे तो देश निकाला स्त्री विमर्श पर लिखा गया है। लेकिन इसकी खास बात यह है कि २००६ जुलाई माह में हुई मुंबई की बारिश के भयावह मंजर का वर्णन। बारिश के बहाने लेखक मंुबई के चरित्र को विश्लेषित करता है।
-मुंबई कभी नहीं सोती। वह अनंत जागरण का शहर है। बहुत हद तक न्यूयार्क की तरह। मुंबई के लोग पूरे आठ महीने धारासार बारिश का इंतजार करते हैं। मानसून शहर की जिंदगी में रोमांस की तरह आता है। लेकिन इस बार वह मौत की तरह आया और कर्मठ उत्सवधर्मी तथा जिंदादिल लोगों को तहस-नहस कर गया।

पूरे उपन्यास में ऐसी जादुई भाषा की भरमार है। मुंबई की उस भयानक बारिश को तब टीवी चैनलों ने अपने कैमरे से लाइव दिखाया था, लेकिन अपने इस उपन्यास में अपनी भाषा से उस भयावह मंजर का जो चित्रण धीरेंद्र अस्थाना करते हैं उसके आगे तो टीवी चैनलों के दृश्य फीके पड़ जाते हैं।
उपन्यास की शुरूआत होती है -सीढ़ियों पर सन्नाटा बैठा हुआ था। इस सन्नाटे के बीच से नि:शब्द गुजरते हुए गौतम सिन्हा अपने फ्लैट के सामने आ गए। यह वैसी ही शुरूआत है जैसे किसी जमाने में नौटंकी शुरू होने से पहलीे नगाड़ा और टंकी बजाने वाला टंकी और नगाड़े से ऐसी धुन निकालता था कि अपने घरों में आराम से सो रहे लोग भी जग जाते थे और उनके कदम खुद व खुद उस धुन की तरफ बढ़ जाते थे। वह तभी रुकते थे जब वे उस स्वर के करीब पहुंच जाते थे। उपन्यास में जब लेखक लिखता है कि -मंच पर मिले थे। मंच पर जिये थे। नेपथ्य में फिसल गए। तो वह बहुत बड़े दृश्य को इन शब्दों में समेट रहा होता है। शायद इसी को कहते हैं गागर में सागर भरना।

- देश निकाला उपन्यास की समालोचना की दूसरी किस्त का इंतजार करें।
- ओमप्रकाश तिवारी

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