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अपने देश में बेगाने

साहित्य की पत्रिकाआें में जो प्रयोग रवींद्र कालिया करते हैं वह शायद ही कोई संपादक कर पाता है। अपने इसी गुण के कारण कालिया जी हमेशा में चर्चा में रहते हैं। हालांकि इस कारण उनकी यदि आलोचना खूब होती है तो गुणगान भी बहुत किया जाता है। लेकिन चर्चा में रहना राजेंद्र यादव को ही नहीं रवींद्र कालिया को भी आता है। हां, दोनों की अपनी-अपनी शैली है।
रवींद्र कालिया के संपादकत्व में निकलने वाली भारतीय ज्ञानपीठ की मासिक पत्रिका नया ज्ञानोदय का मार्च २००८ अंक पश्चिीमोत्तर भारत में हिंदी लेखन पर है। जिसमें हरियाणा, चंडीगढ़, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और दिल्ली के कवियों और कहानीकारों की रचनाआें को स्थान दिया गया है।
जाहिर है कि यह क्षेत्र बहुत बड़ा है और एक अंक में इतने बड़े भूभाग पर रचनाशील लेखकों को समेट पाना मुश्किल ही नामुकिन है। ऐसे में जो रह गए उनका नाराज होना लाजिमी है।
मैं मूलत: यूपी के सुल्तानपुर जिले का निवासी हंू, लेकिन मेरा कार्यक्षेत्र पहले दिल्ली और अब पंजाब है। मैं पिछले आठ साल से अधिक समय से पत्नी बच्चों सहित जालंधर में रह रहा हंू।
कालिया जी ने इस अंक में मेरी कहानी कु़डीमार को प्रकाशित किया है। यह बात पंजाब के कुछ लोगों को अच्छी नहीं लग रही है। खुलकर विरोध के स्वर अभी सामने नहीं आए हैं, लेकिन कनफुसिया टाइप की चर्चाएं आरंभ हो गई हैं। ऐसे लोग बालठाकरे और राजठाकरे वाली मानसिकता से संचालित हो रहे हैं।
वीरवार को जब मैं यह पत्रिका लेने दुकान पर गया तो पूर्व परिचित दुकानदार का रुख अजीब लगा। हालांकि वह पंजाबी संस्कृति के अनुकूल गले मिलकर मेरा स्वागत किया और चाय भी पिलाई लेकिन कुछ ऐसी टिप्पणियां की जो असम्मानजक थीं।
यह संयोग था कि उस समय उसकी दुकान पर एक ऐसा लेखक बैठा था जो साल में एक उपन्यास लिखता है और अपने पैसे से छपवाता है। उसके बाद वह किताब कहीं दिखाई नहीं देती। वह प्रायोजित समीक्षाएं लिखवाता है और प्रायोजित गोष्ठि यां भी करवाता है।
दुकानदार और इस लेखक ने मेरी अनुपस्थिति में नया ज्ञानोदय के इस अंक, इसके संपादक और इसमें छपे रचनाकारों के बारे में ऐसी राय व्य त की, जिसे सही नहीं कहा जा सकता। वैसे तो इसे उनकी कुंठा ही कहा जा सकता है। दुकानदार ने तो चर्चा के दौरान ही हंसते हुए मुझसे कहा कि बाल ठाकरे ने आज या कहा है देखा? उसका इशारा ठाकरे के इस बयान की तरफ था कि एक बिहारी सौ बीमारी। उसने शायद सोचा होगा कि आप्रासंगिक बात की प्रासंगिकता को मैंने शायद समझा नहीं। और यदि समझ गया तो और भी अच्छा है।
मैं जानता हंू कि पंजाब में यूपी-बिहार वालों को अच्छी नजर से नहीं देखा जाता। यह मैं अपने पिछले साढ़े आठ साल के अनुभव से कह सकता हंंू। यही हाल मुंबई का भी है। आज यूपी-बिहार वालों की हालत अपनी धरती पर ही बेगानों जैसी है। देश के किसी भी कोने में इन्हें धकिया दिया जाता है। बेइज्जत किया जाता है। लेकिन इनकी मजबूरी देखिये कि इन्हें अपना प्रदेश छाे़डकर दूसरे राज्यों में जाना पड़ता है। योंकि इनके राज्य में इन्हें रोजगार नहीं मिल पाता। प्रांतीयता की मानसिकता कितनी घातक हो सकती है इसका शायद लोगों को अंदाजा नहीं है लेकिन आजीविका के लिए पलायन भारत ही नहींं समूचे विश्व की समस्या है। केवल यूपी-बिहार के लोग ही नहीं पंजाब और महाराष्ट ्र के लोग भी दूसरे राज्यों में जाते हैं। यह उदारीकरण है। यदि दूसरे देश की पूंजी हमारे यहां आ रही है तो उसका लाभ और हानि सभी को झेलनी पड़ेगी। ऐसा नहीं है कि विदेशी निवेश का लाभ कुछ राज्य उठाएं और हानि के लिए कुछ राज्य के लोग सुनिश्चत कर दिए जाएं। सोचता हंूकि यदि आजादी के समय यही प्रांतीय मानसिकता रही होती तो या देश आजाद हो पाता। यदि पंजाब से शहीद भगत सिंह हैं और गुजरात से करमचंद मोहनचंद गांधी तो यूपी से चंद्रशेखर आजाद भी तो हैं।

फिलहाल आज इतना ही।

टिप्पणियाँ

अनिल रघुराज ने कहा…
लगता चोट सीधे दिल पर लगी है। तिवारी जी, काहे हलकान होते हैं। संक्रमण का दौर है, सब चलत रहत हय। आप सुल्तानपुर कै हएं और हम अंबेडकर नगर कै। आपको पढ़कर अच्छा लगा। कभी फुरसत में आपकी कहानियां भी पढ़ेंगे ताकि पता चले कि अपने इलाके से निकले इंसान की मानसिक उड़ान कहां-कहां तक पहुंचती है, पहुंच सकती है।
साथी...ये तकलीफ आपकी नहीं...अपनी जड़ों से कटे हर कलमकार की है...लेखन वैसे भी आम आदमी के बीच जरूरी, खास और अहम कभी नहीं माना गया. वह लेखकों को स्वप्नदेखू ही मानता है...आपकी कहानी अच्छी है और हकीकी भी...बाकी कुछ तो लोग कहेंगे...
चण्डीदत्त शुक्ल

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