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संवाद हो तो बात भी निकलेगी...दीवार भी गिरेगी....

क्या भारत और पाकिस्तान एक हो सकते हैं? आज के समय में इसका एक ही जवाब हो सकता है कि नहीं। लेकिन कोई भी स्वप्नद्रष्टा, चिंतक और दार्शनिक तथा सूझबूझ वाला इंसान, अमन प्रेमी, शांतिप्रेमी, सद्भना का पथप्रदर्शक यही कहेगा कि हां, ऐसा हो सकता है।
करतारपुर कॉरिडोर के शिलान्यास के मौके पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा कि अगर फ्रांस जर्मनी एक साथ आ सकते हैं तो भारत और पाकिस्तान ऐसा क्यों नहीं कर सकते? उन्होंने यह भी कहा कि हमने एक दूसरे के लोग मारे हैं, लेकिन फिर भी सब भूला जा सकता है। उनका कहना था कि सब कहते हैं कि पाक फौज दोस्ती नहीं होने देगी, लेकिन आज उनकी पार्टी-पीएम और फौज एक साथ है...दोनों देशों के बीच मतभेद का सबसे बड़ा मसला सिर्फ कश्मीर है... इसे हम बातचीत से सुलझा सकते हैं। 
इसे बहुत ही सतही तकरीर कहा जा सकता है। कूटनीतिक भी कहा जा सकता है और मुश्किल समय में साफ़गोई भी कहा जा सकता है। इमरान की इस तकरीर पर भारत की ओर से त्वरित प्रतिक्रिया आयी कि नहीं, बातचीत तब तक नहीं हो सकती जब तक कि पाकिस्तान अपनी धरती से आतंकवाद का संचालन बन्द नहीं कर देता।
इमरान को पता था कि भारत यही प्रतिक्रिया देगा। इसीलिए उन्होंने कहा भी कि मैं यह उम्मीद करता हूँ कि ये न हो कि हमें सिद्धू का इंतजार करना पड़े कि जब वह वजीर-ए-आजम बनेंगे तब पाकिस्तान और हिंदुस्तान की दोस्ती होगी। इमरान ने यह बात अनायास नहीं बिल्कुल सयास कही। वह जानते हैं कि इससे भारत की हुकूमत चिढ़ेगी। क्योंकि उसे सिद्धू से चिढ़ है। उसे इमरान और सिद्धू की दोस्ती से भी चिढ़ है। यही वजह है कि वह यह कहते हैं कि पिछली बार सिद्धू आये तो वापस जाने के बाद उनकी अलोचना हुई थी। इस बार भी पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के मना करने के बावजूद वह पाकिस्तान गए। यह भी की अमरिंदर सिंह ने दो दिन पहले ही इसी कॉरिडोर के शिलान्यास के अवसर पर पाकिस्तान के खिलाफ सिंह गर्जना कर चुके हैं। यह भी कह चुके हैं कि मैं लोगों को मारने वालों के साथ नहीं खड़ा हो सकता। सभी जानते हैं कि अमरिंदर सिंह ने जो कहा वह भारत के एक बड़े वर्ग की मानसिकता है। इमरान भी इसे जानते हैं। वह क्रिकेटर से सियासतदानों में शामिल हुए हैं। भारत और पाकिस्तान की क्रिकेट के प्रति दीवानगी ही एक दूसरे की नफरत पर टिकी है। इसे इमरान से बेहतर कौन जान सकता है। तभी वह कहते हैं कि एक नेता चांस लेता है...ख्वाब देखता है...दूसरी तरह का नेता डर-डर कर वोट बैंक देखता है...एक नफ़रतें फैलाकर वोट लेता है...दूसरा इंसानों को जोड़कर...यह आज की भारतीय सियासत पर सटीक टीप्पणी है, लेकिन इससे अलहदा पाकिस्तान भी नहीं है। इमरान के बोल बेशक इंसानियत में पगे हों लेकिन कर्म ऐसे नहीं लगते हैं। वह कहते हैं कि पाक पीएम और फौज एक है तो उन्हें आतंकवाद को खत्म करने वाले कदम उठाने होंगे। लेकिन यह भी सच है कि सीमा के इस पार नफरत के गीत गए जाएंगे तो सीमा के उस पार भी ऐसे ही सुर उठेंगे। 
कोई भी भूभाग तभी किसी का हो सकता है जबकि उस भूभाग पर रहने वालों को वह अपना समझेगा। साफ है कि भूभाग से पहले वहां के नागरिकों को अपनाना पड़ता है। यह तो शांति और अमन की प्रक्रिया है। दूसरी प्रक्रिया है कि उस भूभाग के नागरिकों का कत्ल करके उस पर कब्जा कर लिया जाय। जाहिर है इसके बाद क्या मिलेगा। एक रक्तरंजित जमीन। जिस पर शांति के फूल कभी खिल ही नहीं सकते। 
वरिष्ठ साहित्यकार प्रियवंद अपनी पुस्तक भारत विभाजन की अन्तर्कथा में लिखते हैं कि कोई नहीं चाहता था की भारत का विभाजन हो फिर भी हो गया। महात्मा गांधी चाहते थे कि देश का बंटवारा न हो, लेकिन उस समय ऐसे लोग थे जो यह चाहते थे कि देश बंट जाय। मुसलमान यहां से चले जायं, ताकि वह हिंदू राष्ट्र बना सकें। बल्कि कुछ लोग तो यह भी चाहते थे कि देश का बंटवारा न हो, लेकिन यहां मुसलमान भी न रहें । ऐसी सोच वालों ने ही महात्मा गांधी की हत्या कर दी। आज भी ऐसी सोच वालों की संख्या कम नहीं है। 
इसी तरह कोई नहीं जानता कि विभाजन के लिए जिम्मेदार कौन है? कोई कहता है कि अंग्रेजी हुकूमत। कोई कहता है कि जिन्ना। कोई कहता है कि नेहरू। कोई कहता है कि महात्मा गांधी। कोई सरदार पटेल को जिम्मेदार मानता है। इतिहास के ये ऐसे चरित्र हैं जो कि विभिन्न तर्कों और नजरियों से विभाजन के जिम्मेदार लगते भी हैं, लेकिन क्या यह विभाजन के जिम्मेदार हैं? यह बड़ा सवाल है। 
समग्रता में देखा जाय तो इनकी भूमिका रंच मात्र ही दिखाई पड़ती है। हालात ही कुछ ऐसे बना दिये गए थे कि इन्हें फैसला करना ही था। अब सवाल यह है कि हालात किसने बनाये थे? जाहिर है जिसे इसका फायदा लेना था। वह थी अंग्रेजी हुकूमत। वह बांट कर और लड़ाकर इस देश पर हुकूमत करती रही। आगे भी उसकी यही योजना और साजिश थी। विभाजन का उसका षड्यंत्र सफल रहा लेकिन दोबारा शासन के उसके मंसूबे पूरे नहीं हो पाए। लेकिन यह सच तो बना ही है कि हम आज भी लड़ रहे हैं और इसमें उल्लू अंग्रेजों का ही सीधा हो रहा है। और यह तब तक होता रहेगा जब तक कि हम लड़ते रहेंगे। आजादी के समय के नेताओं ने धर्म और संस्कृति के नाम पर एक दूसरे से नफरत न कि होती और एक दूसरे से से संवाद रखा होता तो भारत विभाजन न होता। यही बात अब भी लागू होती है कि भारत और पाकिस्तान संवाद करते हैं कि नहीं। गुलजार जी का गीत है कि बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी...जरूरी है कि कोई बात निकले..। शांति, सौहार्द, अमन की बात निकलेगी तो दूर तक जाएगी... नफरत की कोई उम्र नहीं होती... नफरत करने वाली कौमें जिंदा भी नहीं रहतीं...
बात इमरान खान के भाषण की करें तो उसमें अंतर्विरोध हैं। लेकिन बिना द्वंद्व के कोई विचार आगे भी नहीं बढ़ता। करतारपुर कॉरिडोर के शिलान्यास के मौके पर किसी खालिस्तान समर्थक का होना ही सन्देह पैदा करता है। पाक आर्मी चीफ जब गोपाल सिंह चावला से हाथ मिला रहे थे तो इमरान खान का हाथ जोड़कर खड़े नवजोत सिंह सिद्धू, हरसिमरन जीत कौर और हरदीप सिंह पुरी को मुस्कराते हुए देखना अजीब सा लग रहा था...। हालांकि यह अच्छा दृश्य हो सकता था...। बावजूद इसके दोनों देशों में बातचीत होनी ही चाहिए। इतिहास जीने के लिए नहीं सीखने के लिए ही होना चाहिए...। लेकिन सवाल यही है कि क्या आज के हालात में बातचीत संभव है? लगता तो बिल्कुल भी नहीं है। लेकिन दोनों मुल्कों को एक न एक दिन तो बात करनी ही होगी...
- ओमप्रकाश तिवारी


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