शिवमूर्ति जी से मेरा पहला परिचय उनकी कहानी तिरिया चरित्तर के माध्यम से हुआ। जिस समय इस कहानी को पढ़ा उस समय साहित्य के क्षेत्र में मेरा प्रवेश हुआ ही था। इस कहानी ने मुझे झकझोर कर रख दिया। कई दिनों तक कहानी के चरित्र दिमाग में चलचित्र की तरह चलते रहे। अंदर से बेचैनी भरा सवाल उठता कि क्या ऐसे भी लोग होते हैं? गांव में मैंने ऐसे बहुत सारे चेहरे देखे थे। उनके बारे में तरह-तरह की बातें भी सुन रखी थी लेकिन वे चेहरे इतने क्रूर और भयावह होते हैं इसका एहसास और जानकारी पहली बार इस कहानी से मिली थी।
कहानियों के प्रति लगाव मुझे स्कूल के दिनों से ही था। जहां तक मुझे याद पड़ता है स्कूल की हिंदी की किताब में छपी कोई भी कहानी मैं सबसे पहले पढ़ जाता था। किताब खरीदने के बाद मेरी निगाहें यदि उसमें कुछ खोजतीं थीं तो केवल कहानी। कविताएं भी आकर्षित करती थी लेकिन अधिकतर समझ में नहीं आती थीं इसलिए उन्हें पढ़ने में रुचि नहीं होती थी। यही हाल अब भी है। अब तो कहानियां भी आकर्षित नहीं करती। वजह चाहे जो भी लेकिन हाल फिलहाल में जो कहानियां लिखी जा रही हैं वे न तो पाठकों को रस देती हैं न ही ज्ञान। न ही बेचैन करती हैं और न ही कुछ सोचने के लिए मजबूर करती हैं। पाठक को उसमें अपने आसपास का समाज भी नहीं दिखता। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि अब की कहानी बहुत बौद्धिक और बहुत ही बनावटी हो गई हैं। भाषाई चमात्कार चाहे जितना हो लेकिन अपनी बोझिलता और समाज तथा आदमी के सुख-दुख, दर्द और समस्या से दूर होने के कारण वह बोर करती हैं। कहानियों का सतहीपन उन्हें पढ़ने के बाद फिर कोई कहानी पढ़ने के लिए प्रेरित नहीं करता।
लेकिन शिवमूर्ति जी की कहानियों के साथ ऐसा नहीं है। तिरिया चरित्तर पढ़ने के बाद उनकी कहानी जहां भी प्रकाशित हुई और वह पत्रिका मुझे मिल सकी तो मैंने उसे पढ़ा जरूर है। इसकी एक ही वजह है कि वह अपने समाज और भाषा से जुड़े लेखक हैं। वह शहर में रहकर भले ही अफसरी करते रहे लेकिन कहानी उन्होंने जब भी लिखी उसमें गांव पूरी समग्रता और संपूर्णता में जीवंत हो गया। प्रत्येक चरित्र अपने मूल स्वाभाव में पाठक केसामने खड़ा हो जाता है। चरित्र की सजीवता ऐसी की पाठक को लगता है कि वह कोई फिल्म देख रहा है। पात्र पर्दे पर बोल रहा है। सच कहूं तो पर्दे पर बोलने वाला पात्र उनकी कहानियों से अधिक सजीव नहीं होता। इसका पता मुझे तब चला जब मैंने उनकी तिरिया चरित्तर पढ़ने के बाद उस पर बनी फिल्म दिल्ली में देखी। फिल्म मेरेआंखों के सामने चल रही थी लेकिन मैं उसे कहानी के माध्यम से देख रहा था। चरित्रों की भाव भंगिमा और उनकी अदाएं जब अपनी कल्पना से नहीं मिलीं तो लगा कि फिल्म निर्देशक लेखक की भवाना को पकड़ने में चूक गया है। फिल्म के कई दृश्य जब कहानी से मेल नहीं खाए तो खासी निराशा हुई। यह फिल्म की अपनी सीमा हो सकती है लेकिन कहने का भाव यह है कि शिवमूर्ति की कहानी केचरित्र फिल्मी पात्रों से भी अधिक सजीव होते हैं। बिल्कुल मेरे और आपकी तरह।
रवींद्र कालिया जी के संपादन में निकलने वाली भारतीय ज्ञानपीठ की पत्रिका नया ज्ञानोदय में उनका उपन्यास आखिरी छलांग छपा तो उसे एक बैठक में पढ़ गया। शिवमूूूर्ति जी से बहुत सारी उम्मीदें थीं। किसानों पर आधारित होने के उस रचना के माध्यम से गांव की सैर करने की तमन्ना थी। इसलिए उपन्यास पढ़ना आरंभ किया तो खत्म करने के बाद ही दम लिया।
यह वर्ष 2007 के नवंबर-दिसंबर की बात होगी। उस समय मैं अपना नया-नया ब्लॉग बनाया था समालोचना। इसे बनाने के पीछे मकसद था कि काम की व्यस्तता के बावजूद यदि कुछ पढ़ पाया तो उसके बारे में इस पर लिखा करूंगा। चूंकि नई-नई दुनिया की चाभी हाथ लगी थी तो उत्साह भी गजब का था। अगले ही दिन शिवमूर्ति जी के उपन्यास आखिरी छलांग की समीक्षा कर डाली और उसे समालोचना पर पोस्ट कर दिया। इसके बाद एक एसएमएस कालिया जी को और एक शिवमूर्ति जी को कर दिया कि आपके उपन्यास की समीक्षा मैंने लिखी और उसे समालोचना ब्लॉग पर पोस्ट की है चाहें तो पढ़ सकते हैं।
उपान्यास की समीक्षा का मूल भाव यह था कि मेरे प्रिय लेखक ने मुझे निराश किया है। हालांकि उपन्यास में गांव वैसा ही है और चरित्र भी। समस्याएं भी वैसे ही हैं। लेकिन कंटेंट मुझे बिखरा लगा और साफ-साफ लिख दिया कि शिवमूर्ति जैसे कथाकार से इससे बेहतर रचना की उम्मीद थी।
मुझे आश्चर्य तब हुआ जब एक दिन अचानक शिवमूर्ति जी का फोन आ गया। उस समय मैं एक शवयात्रा में शामिल था। ऐसे मौकों पर मोबाइल पर किसी गाने की धुन का बजना कैसा लगा होगा यह मैं आप सब पर छोड़ देता हूं। लेकिन चूंकि मैंने शिवमूर्ति जी का नंबर सेव कर रखा था तो उनका नाम देखने के बाद उसे काट भी नहीं सकता था। मोबाइल को आन करकेमैं रुक गया। औपचारिक बातचीत के बाद शिवमूर्ति जी ने यही कहा था कि मैं आपकी बात से सहमत हूं। मैं इस उपन्यास को फिर से लिखने जा रहा हूं, तो आप कुछ सुझाव देंगे मैं उसे शामिल कर लूंगा। इसके बाद मेरी उनसे बातचीत नहीं हुई। रही बात सुझाव की तो मैंने अपने को इस लायक नहीं पाया कि उन्हें कोई सुझाव देता। रही बात उनके उपन्यास पर लिखने की तो उस समय मैंने एक पाठक के अंदाज में जो उचित लगा वह लिख मारा था। चूंकि छपने के लिए किसी संपादक की जरूरत नहीं थी सो वह छप भी गया। (ब्लॉग पर पोस्ट हो गया) इसके बाद उनका यह उपन्यास किताब के रूप में प्रकाशित हुआ लेकिन मैं उसे नहीं पढ़ पाया। हालांकि मुझे पूरी उम्मीद है कि उन्होंने मेरा ब्लाग पढ़ने के बाद उसमें उठाई गई कमियों की तरफ जरूर ध्यान दिया होगा।
शिवमूर्ति जी की रचनाओं में जो चीजें मुझे प्रभावित करती हैं उनकेबारे में चर्चा करता हूं। शिवमूर्ति जी की कहानी तर्पण के बारे में एक समीक्षक की टिप्पणी है कि तर्पण भारतीय समाज में सहस्राब्दियों से शोषित, दलित और उत्पीड़ित समुदाय के प्रतिरोध एवं परिवर्तन की कथा है। इसमें एक तरफ कई-कई हजार वर्षों के दु:ख, अभाव और अत्याचार का सनातन यथार्थ है तो दूसरी तरफ दलितों के स्वप्न, संघर्ष और मुक्ति चेतना की नई वास्तविकता। तर्पण में न तो दलित जीवन के चित्रण में भोगे गये यथार्थ की अतिशय भावुकता और अहंकार है, न ही अनुभव का अभाव। उत्कृष्ट रचनाशीलता के समस्त जरूरी उपकरणों से सम्पन्न तर्पण दलित यथार्थ को अचूक दृष्टिसम्पन्नता के साथ अभिव्यक्त करता है। शिवमूर्ति हिंदू समाज की वर्णाश्रम व्यवस्था के घोर विखंडन का महासत्य प्रकट करते हैं। इस पृष्ठभूमि पर इतनी बेधकता, दक्षता और ईमान के साथ अन्य कोई रचना दुर्लभ है। समकालीन कथा साहित्य में शिवमूर्ति ग्रामीण वास्तविकता के सर्वाधिक समर्थ और विश्वनीय लेखकों में हैं। तर्पण इनकी क्षमताओं का शिखर है। रजपत्ती, भाईजी, मालकिन, धरमू पंडित जैसे अनेक चरित्रों के साथ अवध का एक गांव अपनी पूरी सामाजिक, भौगोलिक संरचना के साथ यहां उपस्थित है। गांव के लोग-बाग, प्रकृति, रीति-रिवाज, बोली-बानी-सब कुछ-शिवमूर्ति के जादू से जीवित-जाग्रत हो उठे हैं। इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि उत्तर भारत का गंवई अवध यहां धड़क रहा है।
शिवमूर्ति जी केबारे में लिखी गई उपरोक्त बातों से मैं भी पूरी तरह से सहमत हूं। उनकी यही खासियत मुझे भी बहुत प्रभावित करती है। यही वजह है कि उनके बारे में लिखी गई उक्त पंक्तियां मुझे बहुत अच्छी लगीं। सच कहूं तो मैं भी अवध क्षेत्र का हूं। यही नहीं सुल्तानपुर जिले का वासी हूं। (एक बार ऐसे ही शिवमूर्ति जी से बात हो रही थी। लमही में छपी मेरी कहानी पढ़ने के बाद उन्होंने फोन किया था। बातों-बातों में जब उन्हें पता चला कि मैं भी सुल्तानपुर का हूं तो उन्होंने कहा था कि सुल्तानपुर से सात-आठ कहानीकार तो इस समय सक्रिय रुप से कहानियां लिख रहे हैं। ) इस कारण मेरी भी बोली-बानी शिवमूर्ति जी से मिलती-जुलती है। शायद यही वजह है कि जब उनके पात्र अवधी बोलते हैं तो अंदर से एक अजीब से आनंद की अनुभूति होती है। इसे क्षेत्रीयता की मानसिक गुलामी भी कह सकते हैं लेकिन अपनी बोली-बानी और मिट्टी की सुगंध को मरते दम तक कोई भी भुला नहीं सकता। जीविका के लिए देश भर में भटकने के बावजूद हमारे जैसे लोगों की हालत उस पंक्षी की तरह है जो समुद्री जहाज पर है और बार-बार उड़ने के बाद भी थक हार का उसी जहाज पर आता है। उस पंक्षी की मजबूरी है कि उसे कहीं और ठिकाना नहीं मिलता लेकिन हमारे जैसे लोगों की कोई मजबूरी नहीं होती। हम आसानी से किसी शहर में बस सकते हैं और उसकी बोली-बानी में रचबस सकते हैं, और अपने गांव को भूल सकते हैं। लेकिन दिल और दिमाग में रची-बसी तस्वीरों, लोग, बोली-बानी और मिट्टी की खुशबू को नहीं भुला सकते।
(हालांकि काम के सिलसिले में ही सही दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी यूपी और उत्तराखंड में रहते हुए मैं यहां की भी बोली-बानी और भाषा के करीब रहा हूं। आज मुझे जितनी प्रिय और मधुर अवधी लगती है उतनी ही हरियाणवी, गढ़वाली, ब्रज और पंजाबी भी। जहां-जहां भी मैं रहा आज यदि वहां का कोई वांशिदा मिलता है तो टूटी-फूटी ही सही लेकिन उसकी बोली-बानी और भाषा में बात करने के आनंद से मैं खुद को वंचित नहीं रख पाता। )
यही वजह है कि शिवमूर्ति जी का आखिरी छलांग पढ़ते हुए मैं कई जगहों पर भाुवक हुआ। आंखों से आंसू भी निकले। अपने मित्र अमरीक सिंह से इसका जिक्र भी किया। बल्कि कई अवधी शब्दों का अर्थ भी अमरीक को बताया। यह भी कहा कि उपन्यास में जिन शब्दों पर तुम्हारे जैसे लोगों को दिक्कत होती होगी उन्हीं शब्दों पर मेरे जैसे लोग लहालोट हो जाते होंगे। इस पर अमरीक की प्रतिक्रिया थी कि शिवमूर्ति जी की यही तो खासियत है। आपको बता दें कि अमरीक सिंह सिख हैं और हरियाणा के सिरसा में पले बढ़े हैं लेकिन सांस्कृतिक रूप से वह पंजाब के करीब हैं। यही वजह है कि उनका कार्यक्षेत्र अधिकतर समय पंजाब रहा। पंजाबी साहित्य गहरी समझ रखने के साथ ही वह वह हिंदी साहित्य के खास करके उपन्यास विघा के घनघोर और अराजक किस्म के पाठक हैं।
शिवमूर्ति जी की कहानी की भाषा और उसका चित्रण का कमाल तर्पण कहानी के इस अंश में देखिए। -----दो बड़े-बड़े गन्ने कंधे पर रखे और कोंछ में पांच किलो धान की मजदूरी संभाले चलती हुई रजपत्ती का पैर इलाके के नंबरी मेंड़कटा
’ नत्थूसिंह की मेंड़ पर दो बार फिसला। कोंछ के उभार और वजन के चलते गर्भवती स्त्री की नकल करते हुए वह दो बार मुस्कराई। आज की मजदूरी के अलावा चौधराइन ने उसे दो बड़े गन्ने घेलवा में पकड़ा दिए।(मेंड़कटा और घेलवा जैसे शब्द कहानी के मर्म को तो बढ़ाते ही हैं कहानी को विस्तार देकर उसके फलक को और विस्तृत कर देते हैं। मेंड़कटा शब्द से एक ऐसा चरित्र जेहन में उभरता है, जिसके बारे में कहानी में जिक्र भी नहीं है लेकिन वह अपने पूरे वजूद के साथ रचना में मौजूद हो जाता है। इसी तरह घेलवा शब्द से एक संस्कृति की झलक कहानी में पैठ जाती। इन शब्दों के अर्थ को समझने वाला इस चरित्र और संस्कृति के आनंद में डूब जाता है।)
जब से इलाके में मजदूरी बढ़ाने का आंदोलन हुआ, खेतिहर मजदूरों को किसान खुश रखना चाहते हैं। पता नहीं किस बात पर नाराज होकर कब काम का‘बाईकाट’ कर दें।इस गांव के ठाकुरों-बाभनों को अब मनमाफिक मजदूर कम मिलते हैं। पंद्रह-सोलह घरों की चमरौटी ( इस एक शब्द से एक गांव नजरों के सामने घूम जाता है, जिसमें नाना प्रकार के चरित्र संघर्ष करते हुए जिंदगी जीने की जद्दोजहद में लगे होते हैं। ) में दो तीन घर ही इनकी मजदूरी करते हैं। बाकी औरतें ज्यादातर आसपास के गांवों में मध्यवर्ती जाति के किसानों के खेत में काम करना पसंद करती हैं और पुरुष शहर जाकर दिहाड़ी करना। चौधराइन औरतों को खुश रखना जानती हैं। कभी गन्ना, आलू या शकरकंद का‘घेलवा’ देकर, कभी अपने टीवी में ‘महाभारत’ या ‘जै हनुमान’ दिखाकर।शिवमूर्ति जी की रचनाएं ऐसे चित्रणों से भरी पड़ी हैं। अमूमन कहानी या उपन्यास में विवरण पाठकों को बोर करते हैं लेकिन शिवमूर्ति जी की रचनाओं में विवरण इतने चित्रात्मक होते हैं कि पाठक उसमें खो सा जाता है। देखिए तर्पण कहानी का यह अंश।
- नरम पोल्ले सिर हिलाकर खोंटने का न्यौता दे रहे हैं। लाही के खेत में घुटने मोड़े सिर छिपाए देर से इंतजार करता धरमू पंडित का बेटा चंदर रह रहकर ऊंट की तरह गर्दन उठाकर देखता है। दूर खेतों की मेंड़ पर चली आ रही है रजपतिया। अब पहुंची उसके खेतों की मेंड़ पर अभी अगर वह उसके खेत से‘कड़कड़ा’ कर दो गन्ने तोड़ ले तो रंगे हाथ पकड़ने का कितना बढ़िया ‘चानस’ हाथ लग जाए। फिर ना-नुकुर करने की हिम्मत नहीं पड़ सकती.....शिवमूर्ति जी का जीवन और उनका अनुभव काफी संघर्षों वाला है। उनकी रचनाओं के पात्र भी संघर्ष करते रहते हैं। परिस्थितियां चाहे जैसे हो लेकिन अधिकतर पात्र संपूर्ण जीजिविषा वाले होते हैं। लड़ते हैं थकते हैं गिरते हैं फिर उठ खड़े होते हैं। अंत में जो हार जाते हैं वे भी याद रह जाते हैं, क्योंकि वे भी उपरोक्त गुणों से लबरेज होते हैं। वे हार कर भी जीतते हैं। उनकी हार में ही जीत छिपी होती है। कसाईबाड़ा के शनिश्चरी और अधरंगी को कौन भूल सकता है। ये पात्र हार कर भी लोगों को कुछ करने की प्रेरणा दे जाते हैं। इनकी हार निराश नहीं बल्कि उत्साहित करती है और जोश व प्रोत्साहन देती है। हाल ही में तद्भव में प्रकाशित उनकी कहानी ख्वाजा, ओ मेरे पीर के पात्र मामा और मामी को ही जीजिए। जिंदगी जीने में दोनों असफल हैं लेकिन मकसद जीने में दोनों सफल। उनकी असफलता में उनकी जीवटता छिपी है। भले ही उनका दांपत्य जीवन सुखी नहीं रहा लेकिन जिस तरह से उन्होंने जिया वह भी कितने लोग जी पाते हैं? ऐसा जीवन जीने के लिए हौसले की दरकार होती है। ऐसा हौसला कितनी औरतों में होता है कि वह रात में पति से मिलने के लिए दूसरे गांव से आती है? यह चाह केवल यौन सुख की चाह नहीं है। न ही केवल बच्चा पैदा करने की इच्छा से उपजी उत्कंठा है। यह एक स्त्री का समपर्ण है तो उसकी समाज को चुनौती है। यह जताने की मंशा भी है कि औरत कमजोर नहीं होती। सच पूछिये तो मामी का चरित्र अद्भुत है। हालांकि गांवों में ऐसी औरतों के लिए तरह-तरह की कहानियां फैल जाती हैं लेकिन मामी के बारे में ऐसा कुछ नहीं होता तो शायद इसलिए कि वह पूरी पुरुष सत्ता को चुनौती देती हैं। न केवल चुनौती देती हैं बल्कि करके दिखाती हैं।
शिवमूर्ति जी के बारे में किसी ने ठीक ही लिखा है कि -शिवमूर्ति ब्योरों को सरलता से परोसने के लिए जाने जाते हैं और रूला जाते हैं। ग्रामीण परिवेश को, हिंदी कहानी में, रेणु से वह बहुत आगे ले जाते हैं। शायद इसीलिए उनकी कहानियों का अनुवाद भारतीय भाषाओं से लेकर अंग्रेजी और उर्दू तक में उपलब्ध है।
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