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कुछ सियासी बातें

कुछ सियासी बातें
अर्थव्यवस्था के विकास का अर्थशास्त्र बताता है कि इसका फल वर्गों में मिलता है। मसलन विकास का 80 फ़ीसदी धन देश के एक फ़ीसदी लोगों के पास संग्रहित हो जाता है। परिणामस्वरूप हर महीने 30-40 अरबपति उत्पन्न हो जाते हैं। साथ ही जो पहले से अमीर हैं वे और अमीर हो जाते हैं। दूसरी ओर विकास का 20 फीसदी धन देश के 80 फीसदी में बंटता है। इनमें भी किसी को मिलता है किसी को नहीं मिलता है। इससे जो गरीब हैं वह और गरीब हो जाते हैं। इस वजह से कई तरह की सामाजिक विसंगतियां उभरतीं हैं।
दूसरी ओर देश का चुनाव जाति और धर्म पर लड़ा जाता है। इन दोनों का ही आर्थिक विकास में कोई भूमिका नहीं होती है। लेकिन यही लोग सरकार बनाते हैं। या कहें कि इसी आधार पर सरकार बनती है।
इस तरह सरकार बनने और बनाने की प्रक्रिया और सरकार चलाने और चलाने की प्रक्रिया बिल्कुल अलग और भिन्न है। सरकार बनने का बाद सरकार चलाने की प्रथमिकता बदल जाती है। सरकार के केंद्र में वह आ जाता है जिसने वोट देकर सरकार नहीं चुनी होती है बल्कि चंदा देकर अपने पसंद के व्यकितत्व, विचार और दल की सत्तासीन किया होता है। इस तरह मुफ्त का बहुमूल्य मत व्यर्थ साबित हो जाता है और पइसा पैसे को खींचने लगता है। परिणामस्वरूप अमीर यानी चंदा देने वाला और अमीर यानी अरबपति बनने लगता है और अपना कीमती मत देने वाला मतदाता और गरीब होने लगता है। इस प्रक्रिया में जाति और धर्म गौण होता है। लेकिन मीडिया में प्रचार तंत्र में इन्हीं की चर्चा होती रहती है। इसे क्या कहेंगे? साजिश? हां यह साजिश ही है। मुख्य मुद्दे से ध्यान भटकाने की।
इस आलोक में 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव को देखते हैं।
एक तरफ भरतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दल हैं। दूसरी तरफ़ कांग्रेस पार्टी और अन्य क्षेत्रीय दल हैं। इसी के बीच में कम्युनिस्ट पार्टियां भी हैं। भाजपा के अगुआ नरेंद्र मोदी और अमित शाह हैं। कांग्रेस में केवल राहुल गांधी हैं। राहुल गांधी को चुनौती मोदी-शाह से नहीं है। उन्हें चुनौती मिल रही है अपनी विरासती विसंगतियों से। कांग्रेस की अपनी कोई आर्थिक नीति कभी नहीं रही। इसलिये अब भी नहीं है। आजादी के बाद से ही कांग्रेस जब भी सत्ता में रही समय के साथ उसे जो अनुकूल लगा उसी आर्थिक नीति का अनुसरण कर लिया। परिणामस्वरूप देश का विकास हुआ भी नहीं भी हुआ। धनपति विकास करते रहे आम आदमी दाल-रोटी के लिए ही जूझता रहा। इस बीच कांग्रेस विरोधी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उसकी राह में रोड़े अटकता रहा। इसमें कम्यूनिस्टों ने भी साथ दिया और तथाकथित समाजवादियों ने भी। इसका नतीजा रहा कि कांग्रेस जो कर सकती थी अपने शाशनकाल में वह भी नहीं कर सकी। वहीं समाजिक रूप से उसकी नीतियां भी आस्पस्ट रहीं। वैचारिक रूप से भी उसमें द्वंद हमेशा ही रहा। वह सबकी होना चाहती थी और हो नहीं पाई। क्योंकि उसकी कार्यप्रणाली से सभी ने शक किया और एक एक कर सभी किनारे होते गए। कांग्रेस की यह दुविधा अब भी बनी हुई है। यही वजह है कि वह न तो अकेले चुनाव लड़ना चाहती है न ही किसी क्षेत्रीय दल से गठबंधन करना चाहती है। वह संघ-भाजपा के हिंदुत्व से उसी की तरह लड़ना चाहती है। यही वजह है कि राहुल गांधी मंदिर मंदिर मत्था टेक रहे हैं। यह कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष वाली छवि को धूमिल करता है, लेकिन चूंकि राहुल गांधी को संघ से लड़ना है और वह जीतना चाहते हैं इसलिए वह संघ जैसा व्यवहार करता प्रतीत होने चाहते हैं। वह संघ जैसा नहीं हो सकते। लेकिन हिन्दू वह भी जनेऊ धारी हिन्दू होना चाहते हैं। हो सकता है इसके परिणाम उनके पक्ष में चले जाएं। बहुत मुमकिन है कि इसका लाभ उन्हें समाज के एक समुदाय से मिले, लेकिन फिर कई समुदाय कांग्रेस से छिटकेंगे भी। यही वजह है कि कांग्रेस गठबंधन नहीं बना पा रही है। सच बात तो यह है कि राहुल गांधी गठबंधन के मूड में ही नहीं है। राहुल गांधी में न तो राजनितिक दिलचस्पी है ना ही वह किसी पद के महत्वाकांक्षी दिखते हैं। वह अलमस्त हैं और सियासत से अनिक्षुक भी। उनकी धारणा हिअ कि थक हार कर जनता कांग्रेस के पास आएगी ही। 2019 में न सही 2022 में वह अपनी जीत खोज रहे हैं। यह और बात है कि तब तक समय और हालात काफी बदल चुके होंगे।
रही बात क्षेत्रीय दलों की तो उनका अपना अपना एजेंडा है। उनके पास कोई विजन या विचार नहीं है। अखिलेश की सपा हो या मायावती की बसपा। यह सब एक समुदाय विशेष की राजनीति करती हैं और लोकतंत्र में दबाव समूह की हैसियत से अस्तित्व में है। यही इनकी ताकत है और कमजोरी भी। जिसके दम पर यह दबाव बनाती है उसी के कारण यह दबाव में भी आती हैं। इनकी ताकत जाति है लेकिन सत्ता की नीतियां वर्ग आधरित हैं। यही वजह है कि जब यह सत्ता में आ जाती हैं तो अपने समुदाय का कोई भला नहीं कर पाती हैं। यही हाल जनता दल सेकुलर, जनता दल बीजू, तेदेपा, टीडीपी, एनसीपी, टीएमसी, डीएमके आदि जा भी है।
रही बात भाजपा की तो उसके पास कोई आर्थिक विजन नहीं है। मोदी प्रचारक हैं और शाह की छवि नेता की है ही नहीं। वह देखने में ही विचारशून्य लगते हैं। जब बोलते हैं तो पूरी पोल खुल जाती है। उनके पास धर्म है। राष्ट्रवाद है। दोनों को जातीय घोल में मिलाकर वह चरणामृत तैयार करने की चेष्टा कर रजे हैं। राष्ट्र वाद की पंजीरी भी वह बांटने की तैयारी में है। इससे भक्तों की फौज तैयार हो गयी तो एक बार फिर सत्ता में आ ही जायेंगे। हालांकि इस बार यह उतना आसान नहीं है जितना 2014 में था। किले की नींव हिल चुकी है। दीवारें गिरनी तो तय है। यह और बात है कि नई दीवार कौन बनाएगा इसकी तस्वीर अभी साफ नहीं है।

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