यह न्यू इंडिया है। यहां भारत गायब है। यहां सेंसेक्स का उछलना या गिरना बड़ी बात है। भूख, बेरोजगारी या आर्थिक तंगी से मरना कोई बात नहीं है। चौकीदार को भागीदारी पर शर्म की जगह गर्व है। उजली कमीज पर दाग अच्छे लगने लगे हैं। ऐसे चमकीले समय में कुछ गंदिली जिंदगियां दम तोड़ती हैं तो क्या आश्चर्य? इंडिया विश्व की छठी अर्थव्यवस्था है। वह विश्व गुरु बनने वाला है। ऐसे में भारत को कौन पूछे? विकास तो इंडिया में कुलाचे भर रहा है, वह भारत क्यों जाय?
कुछ दिन पहले देश की राजधानी दिल्ली में तीन बच्चों की मौत भूख से हो गयी। इस सच को नकार कर गंगाजल की तरह पी लिया गया। अब प्रतिदिन उछलते सेंसेक्स और तेज आर्थिक विकास के दावों के बीच झारखंड की राजधानी रांची में आर्थिक तंगी की वजह से एक ही परिवार के सात लोगों की आत्महत्या की खबर सामने आई है। डीआईजी एवी होमकर का कहना है कि ऐसा लग रहा है कि पैसों की तंगी के कारण दो भाइयों ने पहले पूरे परिवार को मार डाला और फिर खुद को फांसी लगा ली। मौके से दो सुसाइड नोट मिले हैं, जिनमें से एक पंद्रह पन्ने का और दूसरा दो पन्ने का है। होमकर ने बताया कि सच्चिानंद झा का बड़ा बेटा दीपक झा एक प्राइवेट कंपनी में काम करता था और परिवार के साथ किराए के घर में रहता था। यह परिवार पिछले कुछ दिनों से आर्थिक तंगी से जूझ रहा था।
सवाल उठता है कि क्या आर्थिक तंगी जानलेवा होनी चाहिए? ऐसे हालात क्यों बनने चाहिए कि किसी परिवार को दादा-दादी-बेटा-बहू-पोता-पोती सहित जान देनी पड़ जाए? ऐसा तभी होता है जब दाग अच्छे लगने लगे। जब देश की अर्थव्यवस्था का लाभ 1 फीसदी लोगों के पास सिमटने लगे और वह न्यू इंडिया बनाने लग जाएं और 99 फीसदी वाले भारत को भूल जाएं।
निजी संपत्तियां जब वटवृक्ष बन जातीं हैं तो उनके नीचे किसी और पौधे का विकास अवरुद्ध हो ही जाता है। जब सत्ता कल्याणकारी योजनाओं को भ्रष्ट बताकर जरूरतमंदों को उसके लाभ से वंचित करने लगे तो देश की अधिकतर जनता का भूख, प्यास, बीमारी, बेरोजगारी और बदहाली से मरना तय हो जाता है।
यकीन मानिए आपकी नीयत चाहे जितनी नेक, अच्छी, सुंदर और सही हो लेकिन जब आप निजी संपत्तियों वाले वटवृक्ष को खाद- पानी देंगे तो सवाल उठेंगे ही। क्योंकि इससे अनगिनत पौधे मुरझाते हैं। बौने हो जाते हैं। क्योंकि उनके हिस्से की धूप को, पानी को, हवा को वटवृक्ष हड़प कर हजम कर जाता है।
@ ओमप्रकाश तिवारी
कुछ दिन पहले देश की राजधानी दिल्ली में तीन बच्चों की मौत भूख से हो गयी। इस सच को नकार कर गंगाजल की तरह पी लिया गया। अब प्रतिदिन उछलते सेंसेक्स और तेज आर्थिक विकास के दावों के बीच झारखंड की राजधानी रांची में आर्थिक तंगी की वजह से एक ही परिवार के सात लोगों की आत्महत्या की खबर सामने आई है। डीआईजी एवी होमकर का कहना है कि ऐसा लग रहा है कि पैसों की तंगी के कारण दो भाइयों ने पहले पूरे परिवार को मार डाला और फिर खुद को फांसी लगा ली। मौके से दो सुसाइड नोट मिले हैं, जिनमें से एक पंद्रह पन्ने का और दूसरा दो पन्ने का है। होमकर ने बताया कि सच्चिानंद झा का बड़ा बेटा दीपक झा एक प्राइवेट कंपनी में काम करता था और परिवार के साथ किराए के घर में रहता था। यह परिवार पिछले कुछ दिनों से आर्थिक तंगी से जूझ रहा था।
सवाल उठता है कि क्या आर्थिक तंगी जानलेवा होनी चाहिए? ऐसे हालात क्यों बनने चाहिए कि किसी परिवार को दादा-दादी-बेटा-बहू-पोता-पोती सहित जान देनी पड़ जाए? ऐसा तभी होता है जब दाग अच्छे लगने लगे। जब देश की अर्थव्यवस्था का लाभ 1 फीसदी लोगों के पास सिमटने लगे और वह न्यू इंडिया बनाने लग जाएं और 99 फीसदी वाले भारत को भूल जाएं।
निजी संपत्तियां जब वटवृक्ष बन जातीं हैं तो उनके नीचे किसी और पौधे का विकास अवरुद्ध हो ही जाता है। जब सत्ता कल्याणकारी योजनाओं को भ्रष्ट बताकर जरूरतमंदों को उसके लाभ से वंचित करने लगे तो देश की अधिकतर जनता का भूख, प्यास, बीमारी, बेरोजगारी और बदहाली से मरना तय हो जाता है।
यकीन मानिए आपकी नीयत चाहे जितनी नेक, अच्छी, सुंदर और सही हो लेकिन जब आप निजी संपत्तियों वाले वटवृक्ष को खाद- पानी देंगे तो सवाल उठेंगे ही। क्योंकि इससे अनगिनत पौधे मुरझाते हैं। बौने हो जाते हैं। क्योंकि उनके हिस्से की धूप को, पानी को, हवा को वटवृक्ष हड़प कर हजम कर जाता है।
@ ओमप्रकाश तिवारी
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