‘जब हम फंदे पर लटकेंगे तो भगवान के दर्शन होंगे और भगवान हम सबको बचा लेंगे... लेकिन भगवान ने नहीं बचाया और 11 जानें चली गईं। दिल्ली के बुराड़ी के भाटिया परिवार के घर के मंदिर के रजिस्टर में उक्त बातें लिखी मिली हैं। पुलिस इस आधार पर मान रही है कि चमत्कार के चक्कर में 11 लोगों की जान चली गयी। यह निराधार भी नहीं लग रहा है। दरअसल, इसे आप क्या कहेंगे? यह अंधविश्वास है कि विश्वास है या आस्था है? जहां न कोई सवाल होता है न ही तर्क किया जाता है। सवाल किया भी जाता है तो अव्वल तो जवाब दिया नहीं जाता और यदि दिया भी गया तो वह बेकार का कुतर्क होता है। किसी चमत्कार में लिपटी कहानियां किसी के नाम की कथा के रूप में सुना दी जाती हैं। इस धरती पर या कहें ब्रम्हांड पर कुदरत ही अंतिम सत्य है। वही संचिलत करती है पूरे ब्रम्हांड को। जिज्ञासु और प्रकृति का मित्र बनकर ही उसे जाना समझा जा सकता है। इसी के बीच से मनुष्य अपने विकास का रास्ता निकाल सकता है और खुद के भी अस्तित्व को बचा सकता है। वरना हश्र बुराड़ी के भाटिया परिवार जैसा ही होगा। भाटिया परिवार तो खत्म हो गया लेकिन दुनिया में अरबों लोग आस्था और चमत्कार के चक्कर में हर रोज हर पल मर रहे हैं। उनके चेतन पर अवचेतन प्रभावी है। वे एक अदृश्य के अधीन होकर गुलामी पूर्ण जीवन जीने के लिए अभिशप्त हैं। जरूरी है जो चीज समझ में न आये उस पर सवाल करें। तर्क करें। संयोग, अपवाद और चमत्कार पर विश्वास कतई न करें। किसी के भी प्रति आस्था न पैदा होने दें। जीवन सहज और सरल हो जाएगा। जीवन में यदि कोई संकट या समस्या है तो उससे आपको ही निपटना होगा। संवेदनशीलता से बनाये गए रिश्ते ही आपकी मदद करेंगे। कोई बाबा या तांत्रिक तो बिल्कुल भी नहीं। यदि आप इनकी शरण में गए तो आपने मानसिक गुलामी स्वीकार कर ली। फिर आपका पतन तय है। आपको बर्बाद होने से कोई नहीं बचा सकता। धार्मिकता एक अंधी सुरंग है जिसका कोई और छोर नहीं है। जिज्ञासु बनकर, सवाल और तर्क करके कुदरत को समझ कर ही थाईलैंड में 9 दिनों से फंसे कोच सहित 12 बच्चों को बचाया जा सका। चमत्कार की उम्मीद में बैठे रहते तो 13 जिंदगियां सदा के लिए खामोश हो जातीं जैसे दिल्ली के बुराड़ी में 11 जानें चमत्कार की उम्मीद में चलीं गयीं। चमत्कार कभी नहीं होता, किसी भी सूरत में और किसी भी आस्तिकता में...
शिवमूर्ति जी से मेरा पहला परिचय उनकी कहानी तिरिया चरित्तर के माध्यम से हुआ। जिस समय इस कहानी को पढ़ा उस समय साहित्य के क्षेत्र में मेरा प्रवेश हुआ ही था। इस कहानी ने मुझे झकझोर कर रख दिया। कई दिनों तक कहानी के चरित्र दिमाग में चलचित्र की तरह चलते रहे। अंदर से बेचैनी भरा सवाल उठता कि क्या ऐसे भी लोग होते हैं? गांव में मैंने ऐसे बहुत सारे चेहरे देखे थे। उनके बारे में तरह-तरह की बातें भी सुन रखी थी लेकिन वे चेहरे इतने क्रूर और भयावह होते हैं इसका एहसास और जानकारी पहली बार इस कहानी से मिली थी। कहानियों के प्रति लगाव मुझे स्कूल के दिनों से ही था। जहां तक मुझे याद पड़ता है स्कूल की हिंदी की किताब में छपी कोई भी कहानी मैं सबसे पहले पढ़ जाता था। किताब खरीदने के बाद मेरी निगाहें यदि उसमें कुछ खोजतीं थीं तो केवल कहानी। कविताएं भी आकर्षित करती थी लेकिन अधिकतर समझ में नहीं आती थीं इसलिए उन्हें पढ़ने में रुचि नहीं होती थी। यही हाल अब भी है। अब तो कहानियां भी आकर्षित नहीं करती। वजह चाहे जो भी लेकिन हाल फिलहाल में जो कहानियां लिखी जा रही हैं वे न तो पाठकों को रस देती हैं न ही ज्ञान। न ही बेचैन कर
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