रवीश कुमार ने अपने प्राइम टाइम में नामवर सिंह पर रिपोर्ट क्या दिखा दी कुछ लोगों को बुरा लग गया। उसी दिन से बहुत कुछ लिखा जा रहा है। 1995 से मैं नामवर सिंह का नाम सुन रहा हूं। कभी उनसे मुलाकात नहीं हुई। कभी उनके किसी कार्यक्रम में भी नहीं गया। उनके एक दो साक्षात्कार जरूर पढ़े हैं। हां, उनका नाम काफी सुना है। कई लोग मिले जो उन्हें कोसते थे। अभद्र भाषा का भी इस्तेमाल करते थे। कई लोग मिले जो उनकी तारीफ भी करते थे। लेकिन मैं नहीं जानता कि नामवर सिंह कैसे हैं। एक समय था कि हिंदी साहित्य की आलोचना में उनकी तूती बोलती थी। कोई ऐसा कार्यक्रम शायद ही होता था जो उनके बिना होता हो। घर का जोगी जोगड़ा में काशीनाथ सिंह ने उन्हें एक बेहतर इंसान, अच्छे शिक्षक और बेहतरीन आलोचक के रूप में चित्रित किया है। शायद उन्होंने भाई होने का धर्म निभाया हो। लेकिन मुझे वह संस्मरण अच्छा लगा। दरअसल मुझे नामवर सिंह से कुछ पाने या हासिल करने की कोई लालसा कभी नहीं रही। नामवरों से मैं वैसे भी थोड़ा दूर रहना पसंद करता हूं। रहता भी हूँ। यही वजह रही कि उनसे कोई ईर्ष्या द्वेष नहीं रख पाया। प्राइम टाइम में जब उन पर रिपोर्ट देखी तो अच्छा ही लगा। इसलिए भी अच्छा लगा कि किसी टीवी चैनल पर किसी हिंदी लेखक के बारे में चर्चा तो हुई। आजकल तो टीवी चैनल वाले हिन्दू मुस्लिम, गाय और गोबर में ही उलझे रहते हैं। समय मिल तो भाईयो और बहनो में व्यस्त हो जाते हैं। चाय पर चर्चा, पौकडे का कारोबार भी उन्हें लुभाता है। ऐसे समय में जब हिंदी लेखक को कोई पढ़ना और सुनना नहीं चाहता उस पर रिपोर्ट दिखाना बहुत बड़ा खतरा मोल लेना था। शून्य टीआरपी कौन लेना चाहेगा? रवीश कुमार ने यह खतरा मोल लिया और नाराज हो गाए ऐसे लोग जिन्होंने प्राइम टाइम को देखा भी नहीं। जब किसी से कुछ पाने की लालसा हो और वह व्यक्ति उसे न दे तो ऐसी कुंठा का उत्पन्न होना स्वभाभिक होता है। नामवर सिंह के विषय में जो भी लिखा जा रहा है मुझे उसके पीछे कुछ इसी तरह की भावना लगती है।
शिवमूर्ति जी से मेरा पहला परिचय उनकी कहानी तिरिया चरित्तर के माध्यम से हुआ। जिस समय इस कहानी को पढ़ा उस समय साहित्य के क्षेत्र में मेरा प्रवेश हुआ ही था। इस कहानी ने मुझे झकझोर कर रख दिया। कई दिनों तक कहानी के चरित्र दिमाग में चलचित्र की तरह चलते रहे। अंदर से बेचैनी भरा सवाल उठता कि क्या ऐसे भी लोग होते हैं? गांव में मैंने ऐसे बहुत सारे चेहरे देखे थे। उनके बारे में तरह-तरह की बातें भी सुन रखी थी लेकिन वे चेहरे इतने क्रूर और भयावह होते हैं इसका एहसास और जानकारी पहली बार इस कहानी से मिली थी। कहानियों के प्रति लगाव मुझे स्कूल के दिनों से ही था। जहां तक मुझे याद पड़ता है स्कूल की हिंदी की किताब में छपी कोई भी कहानी मैं सबसे पहले पढ़ जाता था। किताब खरीदने के बाद मेरी निगाहें यदि उसमें कुछ खोजतीं थीं तो केवल कहानी। कविताएं भी आकर्षित करती थी लेकिन अधिकतर समझ में नहीं आती थीं इसलिए उन्हें पढ़ने में रुचि नहीं होती थी। यही हाल अब भी है। अब तो कहानियां भी आकर्षित नहीं करती। वजह चाहे जो भी लेकिन हाल फिलहाल में जो कहानियां लिखी जा रही हैं वे न तो पाठकों को रस देती हैं न ही ज्ञान। न ही बेचैन कर
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