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कम कीमत वाली मौतें हो भी जाएं तो क्या गम


सरकार की मानसिकता को अभिव्यक्त करते हैं आए दिन हो रहे रले हादसे


फिर एक रेल हादसा। ६६ लोगों की मौत। करीब १५० लोग घायल। लगभग ४० लोगों की हालत गंभीर। रेल मंत्री ममता बनर्जी के १४ माह के कार्यकाल में यह १०वां रेल हादसा है। इसका मतलब यह नहीं है कि हादसों के लिए रेलमंत्री जिम्मेदार हैं। लेकिन मंत्रालय के प्रति उनकी गंभीरता का अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है।
आए दिन हो रहे रेल हादसे हमारी सकार की संवेदना, उसकी प्राथमिकता और उसके नजरिये को भी स्पष्ट करते हैं। अब तक हुए रेल हादसों पर यदि गौर किया जाए तो यही तथ्य सामने आता है कि अधिकतर मध्यम वर्ग और गरीब लोगों के लिए चलने वाली ट्रेनें ही दुर्घटनाग्रस्त होती हैं और लेट भी चलती हैं। एक खास वर्ग के लिए चलाई जाने वाली रेल गाडिय़ां न तो देरी से चलती हैं न ही उनकी सुरक्षा के प्रति कोई अंगभीरता दिखाई जाती है। इसे रेल मंत्रालय और रेलवे का हर कर्मचारी जानता है कि गरीबों के लिए चलने वाली ट्रेनें देरी से चलें या हादसाग्रस्त हो जाएं उससे उनकी सेहत पर कोई फर्क नहीं पडऩे वाला। ऐसे लोगों की मौत की कोई कीमत नहीं है। कुछ लाख मुआवजा देकर और दो चार बयान देकर मामले को टरका दिया जाएगा।
यदि एक खास वर्ग के लिए चलने वाली ट्रेनें देरी से चलें और हादसाग्रस्त हो जाएं तो रेलवे कर्मचारियों और अधिकारियों पर सत्ता का ऐसा कहर बरपेगा कि वह पूरी जिंदगी याद रखेंगे। यही कारण है कि आम लोगों के लिए चलने वाली ट्रेनें कभी भी समय से नहीं चलती। रेल बजट में आम आदमी को खुश करने और वोट को पक्का करने के लिए घोषणाएं तो खूब कर दी जाती हैं लेकिन उनका अनुपालन हो नहीं पाता। यदि किसी पर अमल भी होता है तो उसका सियासी लाभ-हानि निकालने के बाद। यदि किसी खास वर्ग के लिए कोई ऐलान किया जाता है तो उस पर अमल तत्काल किया जाता है। आम लोगों के लिए चलने वाली ट्रेनें किसी प्लेटफार्म या आउटर पर गाड़ी होकर एक खास वर्ग की टे्रनों को अपने समय पर गंतव्य की तरफ भागती देखती रहती हैं। उनके इंतजार का सिलसिला थमता ही नहीं और खास ट्रेनें अपने गंतव्य पर पहुंच जाती हैं।
किसी भी रेलवे स्टेशन पर चले जाओ वहां आम लोगों की भीड़ धक्का-मुक्की करती नजर आ जाएगी। बड़े स्टेशनों पर तो बुरा हाल होता है। पूछताछ काउंटर पर ही आधा किलोमीटर लंबी लाइन लगी रहती है। जानकारी देने वाला कर्मचारी यात्रियों से ऐसा व्यवहार करता है जैसे लोग जानवर हों। कहीं से भी नहीं लगता कि वह ड्यूटी कर रहा है और उसका यह कर्तव्य है। कि इसके बदले में वह वेतन लेता है जो लोगों द्वारा यात्रा करने से ही आता है। इसलिए वह कोई एहसान करने नहीं बैठा है लेकिन वह जताता यही है कि वह लोगों पर एहसान कर रहा है।
आम ट्रेनों का निर्धारित प्लेट फार्म अचानक बदल दिया जाता है। इससे जो असुविधा आम लोगों को होती है उसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पिछले दिनों नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर एक ट्रेन का अचानक प्लेटफार्म बदल दिया गया तो भगदड़ मच गई, जिसम कुछ लोगों की मौत हो गई और कई घायल हो गए। रेल मंत्री ने इस अव्यवस्था का जिम्मेदार रेलवे को नहीं बल्कि आम लोगों को ही बताया था। असंवेदनशीलता की यह पराकाष्ठा ही थी। आप किसी वीआईपी ट्रेन को प्लेटफार्म इस तरह अचानक बदल कर देखिए।
रेल हादसे मौत की कीमत को भी अभिव्यक्त करते हैं। बीरभूमि में अभी जो रेल हादसा हुआ उसमें मरने वालों के परिजनों को रेलवे की तरफ से पांच लाख बतौर मुआवजा देने का ऐलान किया गया है। गंभीर घायलों को पचास हजार और मामूली घायलों को पच्चीस हजार। क्या यह मुआवजा पर्याप्त है? यही नहीं यदि मरने वाले खास वर्ग के लोग होते तो क्या तब भी रेल मंत्री इतना ही मुआवजा देतीं? पिछले दिनों देश में एक विमान हादसा हुआ था। उस हादसे में मरने वालों को एअर लाइंस के अलावा राज्य सरकार और केंद्र सरकार ने मुआवजा देने का ऐलान किया था। इस तरह मृतकों के परिजनों को करीब एक करोड़ रुपये बतौर मुआवजा मिला। रेल हादसे में मरने वालों के परिजनों को महज पांच लाख रुपये?
जानते हैं कि ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि मरने वाले आम ट्रेन के साधारण डिब्बे में सफर करने वाले साधारण लोग थे। साधारण डिब्बे में सफर करने वाले साधारण लोगों के मौत की कीमत क्या हो सकती है? रेल मंत्रालय ने पांच लाख देने का ऐलान कर दिया बहुत है। वही वीआईपी ट्रेन के वीआईवी लोग मरे होते तो देखते कितना मुआवजा मिलता। यह भी गौर करने की बात है कि ट्रेनों में साधारण डिब्बे ट्रेन के हमेशा आगे और पीछे लगाए जाते हैं। इसके पीछे भी मानसिकता यही है कि यदि ट्रेन आगे या पीछे से टकराए तो कम कीमत वाली मौत हो। कम कीमती मौतों पर रेल मंत्री या अधिकारी पर कोई नैतिक दबाव भी नहीं पड़ता है। याद कीजिए कि विमान हादसे के बाद नागरिक एवं उड्डय मंत्री ने कम से कम अपने इस्तीफे की पेशकश तो की थी। यहां तो ममता बनर्जी के १४ महीने के कार्यकाल में दस रेल हादसे हो गए लेकिन उन्होंने इस्तीफा देने की नौटंकी भी नहीं की। उन्हें तो हर रेल हादसे में साजिश ही नजर आती है।
सह सच है कि रेल हादसे साजिश के तहत ही हो रहे हैं लेकिन यह किसी सियासी दल की नहीं बल्कि रेल मंत्रालय और हमारी व्यवस्था की साजिश है। साजिश है गरीब का इस्तेमाल वोट के लिए करना और उसे कोई सुविधा नहीं देना।
विकसित देश यह मानते हैं कि उनके नागरिकों की जिंदगी कीमती है इसलिए उन्हें बचाया जाना चाहिए। इसलिए वह अपने देश का खतरनाक कचरा विकासशील देशों में डंप कर रहे हैं। उनकी नुमाइंदगी करने वाले विदूषक बड़ी बेशर्मी से यह कह भी रहे हैं कि चंूकि विकसित देशों की अपेक्षा विकासशील देशों के लोगों की जिदंगी कम कीमती है इसलिए यदि कचरे के कारण यहां लोग मरते हैं तो वह मौत विकसित देशों की अपेक्षा सस्ती होगी। तात्पर्य यह कि जिसकी मौत सस्ती हो उसे मार देना चाहिए। विकसित देशों की यही सोच हमारे सत्ता और प्रभुवर्ग की है। उसकी निगाह में आम आदमी की मौत सस्ती है इसलिए उसके मरने से कोई फर्क नहीं पड़ता। जब सत्ता इस मानसिकता से अपनी व्यवस्था संचालित कर रही हो तो एक रेल हादसा रोज हो क्या फर्क पड़ता है? कम कीमत वाली मौतें हो भी जाएं तो क्या गम?



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