किसी कहानी प्रतियोगिता का पहला पुरस्कार महज दस हजार हो और उसमें से आधे दाम की किताबें मिलनी हों, यह जानते हुए भी उसमें २५० लेखकों द्वारा कहानी भेजना क्या दर्शता है? हिंदी मासिक पत्रिका कथादेश की अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता यह दर्शाती है कि हिंदी के लेखकों के लिए पुरस्कार की राशि कोई मायने नहीं रखती। उनके लिए तो पुरस्कार ही सर्वोपरि है। इससे यह भी पता चलता है कि हिंदी में कितनी प्रचुर मात्रा में कहानियां लिखी जा रही हैं। यदि यह कविता की प्रतियोगिता होती तो संपादक का क्या हाल होता? आप इसकी आसानी से कल्पना कर सकते हैं।
केवल दस हजार रुपये के पुरस्कार के लिए इस तरह से टूट पड़ना यह दर्शता है कि हिंदी का लेखक कितना दरिद्र है। वैसे इसे लेखक की उदारता भी कह सकते हैं। उसे पुरस्कार की राशि से कोई मतलब नहीं है। वह तो केवल पुरस्कृत होना चाहता है। देखा जाए तो यह गलत भी नहीं है। हिंंदी में कई ऐसी पत्रिकाएं निकलती हैं जो अपने यहां छपने वाले लेखकों को एक पैसे भी पारश्रमिक नहीं देतीं। बावजूद इसके उन्हें रचनाएं मिलती हैं और वह धड़ल्ले से छपती हैं। इसमें भी दोष लेखकों का ही है। यदि वह मुफ्त में न लिखें तो उन्हें कोई बाध्य नहीं कर सकता। लेकिन मठाधीशों के मारे रचनाकारों के लिए भी तो कोई ठौर होना चाहिए? ऐसे लेखकों के लिए ऐसी पत्रिकाएं बहुत बड़ा सहारा होती हैं।
वैसे भी हिंदी का लेखक अपने लेखन के दम पर जीवन-यापन नहीं कर सकता। हिंदी के अधिकतर लेखक जीविकोपार्जन के लिए नौकरी करते हैं या फिर कोई धंधा। लेखन तो किसी का शौक होता है तो किसी का अपनी भड़ास निकालने का साधन। कुछ तो इसी बहाने मठाधीशी करते हैं। कुछ इसी बहाने उपकृत हो जाते हैं तो कुछ उपकृत करते हैं। वैसे उद्देश्य सब का नेक होता है। सब समाज की विसंगतियों को दूर करने के लिए कलम घिसते हैं। यह और बात है कि वे इसी बहाने और विसंगतियां पैदा कर देते हैं।
टिप्पणियाँ