सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

आतंकवाद की वजहों को तलाशना होगा


सख्त कानून से नहीं रुकेगा आतंकवाद

तेरह सितंबर को दिल्ली में हुए सीरियल बम ब्लास्ट के बाद केंद्र सरकार को आतंकवाद से निपटने के लिए सख्त कानून की याद आ गई। यही कारण है कि सवा चार साल पहले सत्ता में आते ही पोटा को समाप्त करने वाली सरकार द्वारा गठित दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग (एआरसी) ने आतंकवाद के खात्मे के लिए मजबूत सुरक्षा उपायों से लैस सख्त और व्यापक कानून बनाने की वकालत की है। उसने पोटा का नाम नहीं लिया है मगर उसके कई प्रावधानों को नए कानून में शामिल करने की जरूरत बताई है। आयोग ने आतंकी अपराधों की जांच के लिए संघीय जांच एजेंसी बनाने की भी सिफारिश की है। एआरसी की आठवीं रिपोर्ट में कहा गया है कि राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (रासुका) के तहत आरोपी किसी भी व्यि त को जमानत पर रिहा नहीं किया जाना चाहिए। संघीय जांच एजेंसी बनाने का भी सुझाव दिया गया है।
अभी तक केंद्र सरकार किसी सख्त कानून का विरोध करती रही है। यही नहीं सत्ता में आते ही उसने अटल बिहारी वाजपेयी के शासन काल में लागू किए पोटा कानून को हटा दिया था। तभी से जब भी देश में आतंकी धमाके करते थे तो केंद्र सरकार भाजपा के निशाने पर आ जाती थी। भाजपा का मानना है कि आतंकवाद से निपटने के लिए पोटा जैसा कानून जरूरी है। यह और बात है कि उसके शासन काल में पोटा लागू था तब भी आतंकी संसद पर हमला कर रहे थे। जो यह दर्शाता है कि आतंकवाद से केवल सख्त कानून से नहीं लड़ा जा सकता।
दरअसल, आतंकवाद से लड़ने के लिए सतर्कता बहुत जरूरी है। यह सतर्कता सरकार, प्रशासन, खुफिया एजेंसियों और पुलिस के साथ ही समाज के प्रत्येक नागरिक में होनी जरूरी है। दिल्ली के गफ्फार मार्केट में जिस आटो में धमका हुआ उसका चालक यदि सावधान रहता तो वह आतंकी को पकड़वा सकता था। उसे उस व्यि त पर शक करना चाहिए था जो अपने पहनावे और गतिविधि से संदिग्ध लग रहा था।
इसी तरह अहमदाबाद और दिल्ली में धमाके से पहले मीडिया को ई-मेल मुंबई से किया गया, जबकि वहां पर आतंकियों से लड़ने के लिए एसटीएफ का गठन किया गया है। फिर भी मुंबई में आतंकियों की गतिविधियों पर अंकुश नहीं लग पा रहा है।
सख्त कानून तो तब काम करेगा जब आप किसी को पकड़ पाएंगे। यहां तो सबसे बड़ी नाकामी यही है कि कोई आरोपी पकड़ा ही नहीं जा रहा है। हां, पुलिस वर्तमान कानून का दुरुपयोग करने में आगे है। उसे कोई सख्त कानून मिल जाए तो उसका और दुरुपयोग करेगी। कुछ राजनीतिक दल भी ऐसा ही करेंगे। जैसा कि पोटा के मामले में किया गया। हाजारों बेकसूरों को जेल में ढूंस दिया गया था। निजी रंजिश के लिए बेकसूरों को आतंकवादी बना दिया गया। हमारी पुलिस तो अभी भी ऐसा कर देती है। सोचिए उसके हाथ पोटो जैसा कानून लग जाए तो या करेगी?
जो लोग गुजरात दंगे का विरोध करते हैं और इसके लिए भाजपा और नरेंद्र मोदी को दोषी ठहराते हैं उनसे अकसर यह कहा जाता है कि यह सब गोधरा के कारण हुआ। यदि गुजरात केदंगे गोधरा के कारण हुए तो गोधरा किस कारण हुआ? हालांकि गोधरा कांड में विभिन्न तरह के मतभेद हैं, फिर भी यह सवाल तो उठता ही है। आज यदि इंडियन मुजाहिददीन ई-मेल भेजकर कह रहा है कि वह गुजरात दंगे का बदला लेगा। बाबरी मसजिद गिराये जाने का बदला लेगा तो उसे इस हद तक सोचने के लिए किसने विवश किया। जाहिर है यदि किसी एक संगठन और समुदाय की गतिविधियों की वजह से किसी दूसरे संगठन और समुदाय की मानसिकता ऐसी हो जाती है तो इसके लिए दोषी किसे ठहराया जाना चाहिए? वह जहां से क्रिया हो रही है कि वह जहां से प्रतिक्रिया हो रही है? यह तो जाहिर ही है कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है।
आज कुछ कट्ट पंथियों के कारण देश में एक समुदाय शक के दायरे में आ गया है। समाज में इस समुदाय के लोगों पर तंज किया जा रहा है तो एक और समुदाय के कट्ट रपंथी देश भर मेंं हिंसा का नंगा नाच कर रहे हैं। उड़ीस के कंधमाल से लेकर कर्नाटक के मंगलूर और गुजरात के बडोदरा तक, हिंसा का तांडव हो रहा है। इन पर यदि कोई उंगली उठाता है तो कुछ लोग उसकी देशभि त पर ही सवाल उठाने लगते हैं। जबकि आज यदि देश आतंकवाद की आग में जल रहा है तो उसके लिए ऐसी ही गतिविधयां और इसमें शामिल व शह देने वाले लोग ही जिम्मेदार हैं। लोग आतंकवाद से निपटने के लिए सख्त कानून की मांग करते हैं और जब सत्ता में होते हैं तो पोटा जैसा कानून बनाते भी हैं। यह सब इसलिए कि आप इस देश में बहुसंख्यक हैं। इसलिए यह देश आपकी जागीर है। आपकी दादागीरी मानने के लिए दूसरे समुदाय के लोग बाध्य हैं। जो नहीं मानेगा उसे आप आतंकवादी बताकर उसका इनकाउंटर करा देंगे या फांसी पर चढ़ा देंगे। यह भी नहींं कर पाएंगे तो दंगे कराकर ही मरवा डालेंगे। आखिर इसे कोई भी समुदाय कब तक बर्दाश्त करेगा? वैज्ञानिक नियम है कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। इस प्रतिक्रिया को आप सख्त कानून बनाकर नहीं रोक पाएंगे। आज समाज के लोगों को इस बात को समझना जरूरी है। उनके बीच जो लोग राजनीति कर रहे हैं उनका चरित्र कैसा है? विचार कैसा है? राष्ट ्रवाद के नाम पर कहीं वह राष्ट ्र को ताे़डने का तो काम नहीं कर रहे हैं। यदि किसी समुदाय की राष्ट ्रभि त पर आप शक करेंगे तो उसकी प्रतिक्रिया तीखी ही नहीं विध्वसंक हो सकती है। फिर उसे किसी सख्त कानून से न तो सुधारा जा सकता है न ही रोका जा सकता है। आतंकवाद पहले पंजाब में था। फिर जम्मू-कश्मीर में फैला। अब वहां से निकल कर पूरे देश मेंं फैल गया है। पहले विदेश से आतंकी आते थे। अब देश के लोग ही इसमें संलिप्त पाए जा रहे हैं। ऐसा यों हो रहा है? सख्त कानून बनाने से महत्वपूर्ण इस पर विचार करने और सोचने का समय है। यदि ऐसा नहीं किया गया तो कोई भी कानून बना लो धमाके तो होते ही रहेंगे।

टिप्पणियाँ

एकदम सही बात कह रहे हैं आप।

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

ख्वाजा, ओ मेरे पीर .......

शिवमूर्ति जी से मेरा पहला परिचय उनकी कहानी तिरिया चरित्तर के माध्यम से हुआ। जिस समय इस कहानी को पढ़ा उस समय साहित्य के क्षेत्र में मेरा प्रवेश हुआ ही था। इस कहानी ने मुझे झकझोर कर रख दिया। कई दिनों तक कहानी के चरित्र दिमाग में चलचित्र की तरह चलते रहे। अंदर से बेचैनी भरा सवाल उठता कि क्या ऐसे भी लोग होते हैं? गांव में मैंने ऐसे बहुत सारे चेहरे देखे थे। उनके बारे में तरह-तरह की बातें भी सुन रखी थी लेकिन वे चेहरे इतने क्रूर और भयावह होते हैं इसका एहसास और जानकारी पहली बार इस कहानी से मिली थी। कहानियों के प्रति लगाव मुझे स्कूल के दिनों से ही था। जहां तक मुझे याद पड़ता है स्कूल की हिंदी की किताब में छपी कोई भी कहानी मैं सबसे पहले पढ़ जाता था। किताब खरीदने के बाद मेरी निगाहें यदि उसमें कुछ खोजतीं थीं तो केवल कहानी। कविताएं भी आकर्षित करती थी लेकिन अधिकतर समझ में नहीं आती थीं इसलिए उन्हें पढ़ने में रुचि नहीं होती थी। यही हाल अब भी है। अब तो कहानियां भी आकर्षित नहीं करती। वजह चाहे जो भी लेकिन हाल फिलहाल में जो कहानियां लिखी जा रही हैं वे न तो पाठकों को रस देती हैं न ही ज्ञान। न ही बेचैन कर

उपन्यासकार जगदीश चंद्र को समझने के लिए

हिंदी की आलोचना पर यह आरोप अकसर लगता है कि वह सही दिशा में नहीं है। लेखकों का सही मूल्यांकन नहीं किया जा रहा है। गुटबाजी से प्रेरित है। पत्रिकाआें के संपादकों की मठाधीशी चल रही है। वह जिस लेखक को चाहे रातों-रात सुपर स्टार बना देता है। इन आरोपों को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता। आलोचना का हाल तो यह है कि अकसर रचनाकर को खुद ही आलोचना का कर्म भी निभाना पड़ता है। मठाधीशी ऐसी है कि कई लेखक अनदेखे रह जाते हैं। उनके रचनाकर्म को अंधेरी सुरंग में डाल दिया जाता है। कई ऐसे लेखक चमकते सितारे बन जाते हैं जिनका रचनाकर्म कुछ खास नहीं होता। इन्हीं सब विवादों के बीच कुछ अच्छे काम भी हो जाते हैं। कुछ लोग हैं जो ऐसे रचनाकारों पर भी लिखते हैं जिन पर व त की धूल पड़ चुकी होती है। ऐसा ही सराहनीय काम किया है तरसेम गुजराल और विनोद शाही ने। इन आलोचक द्वव ने हिंदी साहित्य के अप्रितम उपन्यासकार जगदीश चंद्र के पूरे रचनाकर्म पर किताब संपादित की। जिसमें इन दोनों के अलावा भगवान सिंह, शिव कुमार मिश्र, रमेश कंुतल मेघ, प्रो. कुंवरपाल सिंह, सुधीश पचौरी, डा. चमन लाल, डा. रविकुमार अनु के सारगर्भित आलेख शामिल हैं। इनके अल

रवींद्र कालिया और ममता कालिया को जनवाणी सम्मान

इटावा हिंदी निधि न्यास की ओर से आठ नवंबर को सोलहवें वार्षिक समारोह में मशहूर साहित्यकार रवींद्र कालिया और ममता कालिया को जनवाणी सम्मान दिया जाएगा। न्यास इस समारोह में रंगकर्मी एमके रैना (श्रीनगर), आईएएस अधिकारी मुकेश मेश्राम (लखनऊ), जुगल किशोर जैथलिया (कोलकाता), डॉ. सुनीता जैन (दिल्ली), विनोद कुमार मिश्र (साहिबाबाद), शैलेंद्र दीक्षित (इटावा), डॉ. पदम सिंह यादव (मैनपुरी), पं. सत्यनारायण तिवारी (औरैया), डॉ. प्रकाश द्विवेदी (अंबेडकर नगर), मो. हसीन 'नादान इटावी` (इटावा) के अलावा इलाहाबाद के पूर्व उत्तर प्रदेश महाधिव ता वीरेंद्र कुमार सिंह चौधरी, पत्रकार सुधांशु उपाध्याय और चिकित्सक डॉ. कृष्णा मुखर्जी को सारस्वत सम्मान देगी।