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सरकार चेते तो और जल्दी छंट जाएगा अंधेरा

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों की मानें तो देश में परिवार नियोजन अपनाने वाले लोगों की संख्या में ९.४ फीसदी की वृद्धि हुई है। बढ़ती आबादी वाले इस देश के लिए इससे अच्छी खबर और या हो सकती है? बढ़ती महंगाई और घटती आय के कारण लोगों को छोटे परिवार के लिए सोचने को मजबूर किया होगा। लोगों में चेतना का एक बड़ा कारण शिक्षा के प्रसार का भी हो सकता है। हालांकि आंकड़े बताते हैं कि शिक्षित और संपन्न राज्यों में परिवार नियोजन कार्यक्रम के प्रति लोगों के रुझान में कमी आई है। इसके विपरीत गरीबी और अधिक आबादी के भार तले दबे राज्यों में लोगों का रुझान परिवार नियोजन के प्रति अधिक है।
स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार वर्ष २००३-०४ में देश भर में कुल ४९२४८२४ लोगों ने नसबंदी या नलबंदी कराई। लेकिन वर्ष २००४-०५ में इसमें एक फीसदी की गिरावट आ आई और ये आंकड़े ४८९५१०३ पर आ गए। वर्ष २००५ में तो नसबंदी और नलबंदी अपनाने वालों में भारी कमी दर्ज की गई। ४.१ फीसदी की गिरावट के साथ ये आंकड़े ४६९२०३२ पर पहुंच गए। लेकिन वर्ष २००७ में नसबंदी और नलबंदी कराने वालों के आंकड़े में फिर वृद्धि दर्ज की गई। करीब ५० लाख लोगों ने इसे अपनाया।
सबसे दिलचस्प बात यह है कि परिवार नियोजन कार्यक्रम को अपनाने वाले राज्यों में बिहार, यूपी जैसे राज्य आगे रहे, जबकि दिल्ली जैसे राज्य पीछे चले गए।
वर्ष २००६ में उत्तर प्रदेश में ४,२९,४४१ और वर्ष २००७ में ४,७१,८९१ लोगों परिवार नियोजन कार्यक्रम का लाभ उठाया। यानी लाभ उठाने वालों की संख्या में ९.९ फीसदी की वृद्धि दर्ज हुई। उत्तराखंड में वर्ष २००६ में ३२७६७ जबकि, वर्ष २००७ में ३४७९९ लोगों ने इसका लाभ उठाया। यहां ६.२ फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई। बिहार में तो वर्ष २००६ में मात्र १,९,९७७ लोगों ने परिवार नियोजन अपनाया। लेकिन वर्ष २००७ में २७५ फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज कर यह आंकड़ा ३,००,९१८ तक पहुंच गया। पश्चिम बंगाल में वर्ष २००६ की तुलना में वर्ष २००७ में ९४.६ फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई। उड़ीसा में २९.१ फीसदी की बढ़ोतरी हुई। हिमाचल में वर्ष २००६ में २६४४५ लोगों ने परिवार नियोजन को अपनाया। जबकि, वर्ष २००७ में ३०४८८ लोगों ने इसे अपनाया। जम्मू-कश्मीर में इन आंकड़ों में १४.७ फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। दूसरी ओर दिल्ली समेत शिक्षित राज्यों में वर्षों से समान रूप सफलता दर्ज की जा रही है। जिसके कारण परिवार कल्याण कार्यक्रम अपनाने वालों की संख्या में कमी दर्ज की गई है। आंकड़ों के अनुसार वर्ष २००७ में वर्ष २००६ की तुलना में ९.६ फीसदी की कमी दर्ज की गई है।
ऐसा माना जा रहा है कि बीच सालों में लोगों ने परिवार नियोजन से इसलिए मुंह माे़ड लिया था योंकि सरकार ने इससे संबंधित सहायता राशि को लगभग बंद कर दिया था, लेकिन केंद्र सरकार ने २००७ में सहायता राशि में बढ़ोतरी की तो लोगों का रुझान इस तरफ फिर बढ़ा। खास करके गरीब तबके की दंपतियों ने भी परिवार नियोजन को अपनाने में रुचि ली।
दरअसल, देश में इस कार्यक्रम को लोकप्रिय बनाने के लिए जितने धन की जरूरत है उतना इसे मिल ही नहीं रहा है। यही नहीं यह परिवार नियोजन कार्यक्रम सरकारी अस्पतालों में नारों तक ही सीमित रहा गया है। इसे और आकर्षक बनाने की जरूरत है। यदि ऐसा किया जाए तो देश जिस जनसंख्या के बारूद पर बैठा है उससे जल्द मुि त मिल जाए। लेकिन अफसोसजनक बात तो यह है कि सरकार लोगों की सेहत के प्रति ध्यान ही नहीं दे रही है। इस मद में बजट बढ़ाने के अलावा कटौती ही करती जा रही है। जो कुछ सुविधाएं मिलती भी हैं वह भ्रष्ट ाचार की भेंट चढ़ जाती हैं।
पिछले ही दिनों संयु त राष्ट ्र ने भारत-चीन सहित दूसरे एशियाई देशों को बाल मृत्यु दर पर नियंत्रण पाने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाआें पर खर्च बढ़ाने की हिदायत दी। संयु त राष्ट्र का कहना है कि पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्युदर घटाने के लिए इस मद में खर्च कम से कम दो फीसदी बढ़ाया जाना चाहिए।
यूनिसेफ की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि २००६ में भारत में पांच साल से कम के २१ लाख बच्चों की मौत हुई जो दुनिया में इस उम्र में कुल बच्चों की मौत का पांच फीसदी है। चीन में इस दरम्यान पांच साल से कम के ४ लाख १५ बच्चों की मौत हुई। बच्चों की इस अकाल मौत की वजह बच्चों की देखभाल में लापरवाही, निमोनिया, डायरिया और कुपोषण प्रमुख है।

रिपोर्ट के मुताबिक एशिया प्रशांत क्षेत्र में सार्वजनिक स्वास्थ्य पर सकल घरेलू उत्पाद का औसतन १.९ फीसदी ही खर्च किया जाता है, जबकि दुनिया के दूसरे देश इस मद में तकरीबन ५.१ फीसदी खर्च करते हैं। सर्वाधिक आबादी वाले दो देशों में चीन विश्व की सबसे तेजी से आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था है। यह सालाना १०.१ फीसदी की दर से विकास कर रही है, जबकि भारत ने भी ३१ मार्च को समाप्त तिमाही में ८.८ फीसदी की विकास दर को बनाए रखा, लेकिन इन दोनों ही देशों में बच्चों की मृत्युदर चिंताजनक स्तर पर है। चीन १९७० से २००६ के दरम्यान प्रति १००० पर ११८ बच्चों की मृत्युदर को घटाकर २४ तक यानी ८० फीसदी कम करने में कामयाब रहा है, जबकि भारत इस दौरान इसे २३६ से मात्र ७६ तक यानी ६० फीसदी घटाने करने में सफल हुआ।
यूनिसेफ का मानना है कि ये देश आर्थिक विकास के साथ इस दिशा में और तेजी से आगे बढ़ सकते हैं, लेकिन दुख की बात है कि यहां आर्थिक विकास के साथ अमीर और गरीब के बीच की खाई और बढ़ती गई है। नतीजतन लाखों बच्चों और महिलाआें को उपयु त स्वास्थ्य सेवाएं नहीं हासिल हो पा रही हैं।
यूनिसेफ ने कहा है कि भारत में कुल आबादी के २० फीसदी अमीर तबके के पांच साल से कम उम्र के बच्चों को गरीबों की तुलना में सभी मूल टीके और स्वास्थ्य सेवाआें का तीन गुना ज्यादा लाभ मिलता है। दक्षिण एशिया ही दुनिया का ऐसा हिस्सा है जहां महिलाआें की जीवन प्रत्याशा आज भी पुरुषों से कम है। यहां २००५-०६ के दौरान हासिल रिकार्ड के मुताबिक लड़कियां लड़कों की तुलना में कम वजन की ही होती हैं। भारत में पांच साल से कम की लड़कियों की मृत्युदर प्रति हजार ७९ है, जबकि लड़कों की ७० है।
कहने की जरूरत नहीं है कि यदि विकास के साथ ही हमारी सरकार इस तरफ ध्यान दे तो बेहतर नतीजे सामने आ सकते हैं। इस काम में यदि राज्य सरकारें भी दिलचस्पी लें और प्राथमिकता के आधार पर इस संदर्भ में कार्य करें तो और भी बेहतर नतीजें सामने आ सकते हैं।

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