कथादेश ने जनवरी २००८ अंक में अखिल भारतीय कहानी पुरस्कार २००७ की घोषणा की है। इसके अंतर्गत उसने सात कहानियां प्रकाशित की हैं। इनमें तीन तो प्रथम, द्वितीय और तृतीय स्थान पाने वाले लेखकों की रचनाएं हैं शेष को सांत्वना पुरस्कार मिला है।
पहला पुरस्कार मिला है रत्न कुमार सांभरिया की कहानी : बिपर सूदर एक कीने को।
दलित विमर्श की पृष्ठ भूमि वाली यह कहानी बिल्कुल ही अस्वाभाविक लगती है। हो सकता हो कि एक दलित के बेटा के पुलिस आफिसर बन जाने के बाद जो घटना इस कहानी में दिखाया गया है वह सच हो लेकिन कहानी में यह कहीं से भी स्वाभाविक नहीं लगता। सवर्ण मानसिकता वह भी पुजारी की ऐसी नहीं होती कि वह कल तक जिसे अछूत समझ रहा हो उससे संबंध जाे़ड ले। बेशक उस अछूत की सामाजिक हैसियत बदल गई हो। जाति का दंभ इतनी जल्दी नहीं जाता। जाति का अपना मनोविज्ञान है। उच्च जाति का होने का दंभ आदमी को कभी झुकने नहीं देता। समाज शास्त्रीय विश्लेषण भी शायद इस कहानी को उचित नहीं ठहरा पाएगा। ऐसे में इस कहानी को पहला पुरस्कार यों दिया गया समझ में नहीं आया।
दूसरा पुरस्कार दिया गया है अनुराग शु ला की कहानी : लव स्टोरी वाया फ्लेशबैक को।
भाषा और शैली के लिहाज से यह कहानी बेजाे़ड है। लेखक की कल्पनाशि त भी आशा जगाती है कि लेखक आगे चलकर कुछ बेहतर रचनाएं हिंदी साहित्य को देगा। लेखक की यह शायद दूसरी प्रकाशित कहानी है। लेकिन खतरा यह है कि लेखक अति कलावादी हो सकता है। कम से कम उसकी इस कहानी से तो ऐसा ही अभास मिलता है। लेकिन यदि ऐसा नहीं होता तो उसमें काफी संभावनाएं हैं।
तीसरा पुरस्कार दिया गया है कैलाश वानखे़डे की कहानी : अंतर्देशीय पत्र को। यह कहानी बहुत कुछ प्रतीकों में कह जाती है। लेकिन इसमें विखराव बहुत है जो खटकता है। हालांकि यह लेखक की दूसरी कहानी। इस लिहाज से उससे काफी उम्मीदें की जा सकती हैं। उनमें संभावनाएं हैं। हालांकि पुरस्कार जैसी बात समझ में नहीं आती।
पहला सांत्वना पुरस्कार विश्वम्भर त्रिपाठी की कहानी वे हत्यारे को दिया गया है।
इस कहानी की भाषा-शैली और प्रवाह बेजाे़ड है। गांवों में ज्वाला प्रसाद जैसे चरित्र आम हैं। दूसरों की संपत्ति पर धनवान बनने की धनपिपासू लोगों से आज के गांव अटे पड़े हैं। धोखे से दूसरे की जमीन अपने नाम करवा लेना भी आम बात हो गई है। छल-प्रपंच गांवों में इतना हो गया है कि सीधे-साधे लोगों का वहां रहना दूभर हो गया है। इस पृष्ठ भूमि पर यह कहानी अच्छी है, लेकिन इसमें भी अतिशयोि तयां आ जाती हैं। कहीं-कहीं पर अस्वाभाविकता भी तारी है। जिससे प्रवाह बाधित होता है। कहानी का अंत भी सार्थक नहीं लगता। पलायनवादी अंत से लेखक या संदेश देना चाहता है? फिर भी कहानी प्रभावित करती है और अन्य कहानियों की अपेक्षा अधिक स्वाभाविक भी लगती है।
दूसरा सांत्वना पुरस्कार राजेश मलिक की कहानी : टेपका को दिया गया है।
यह कहानी हिजड़ों की दुनयिा का बहुत कुछ सामने लाती है। लेकिन इतने सतहीपन से की प्रभावित नहीं कर पाती। कहीं-कहीं तो यह रिपोर्टिंग सही लगती है। हालांकि लेखक के प्रयास की जितनी सराहना की जाए कम है। ऐसे विषयों पर लिखना एक जोखिम ही है। इसे लेखक ने उठाया है और किसी हद तक कामयाब भी हुआ है। लेखक केसाहस को बधाई देनी चाहिए।
तीसरा सांत्वना पुरस्कार संजय सिंह की कहानी : यूजेनियों मोंताले को जानती है? को दिया गया है। इस कहानी के बारे में मैं कुछ नहीं लिख सकता योंकि इसे मैं पढ़ नहीं पाया। मौका मिला तो पढूंगा जरूर लेकिन तब कुछ टिप्पणी दे पाऊंगा कि नहीं कह नहीं सकता। इस रचनाकार से फिलहाल क्षमा ही मांग सकता हंू।
चौथा सांत्वना पुरस्कार अभिलाष वर्मा की कहानी : प्रो. हाजरा की अजीब दास्तान को दिया गया है।
प्रो. हाजरा की अजीब दास्तान को लेखक रचने में बाखूबी कामयाब हुआ है। चरित्र प्रधान यह कहानी मूलत: प्रेम कहानी है। समाज में ऐसे लोगों की भरमार है जो प्यार तो करते हैं लेकिन व्य त नहीं कर पाते। जिसका परिणाम यह होता है कि उस दर्द को वह पूरी जिंदगी झेलते रहते हैं। एक तरह से उनका व्यि तत्व खंडित हो जाता है। उसकी वजह से वह समाज में परिहास का पात्र भी बन जाते हैं। किसी भी इच्छा का दमन शायद कुंठा को ही जन्म देता है। प्रेम भावना को दबाना तो मनोवैज्ञानिक तौर पर और भी खतरनाक होता है। ऐसा करने पर आदमी में पागलों जैसे लक्षण आ ही जाते हैं। प्रो. हाजरा का चरित्र ऐसा ही है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि कथा देश एक उच्चस्तरीय पत्रिका है। उसकी अपनी एक गरिमा है। उसने यदि इन लेखकों को प्रकाशित किया है तो जाहिर है कि उनमें कुछ खास है। यह तो इन्हें पढ़कर ही महसूस किया जा सकता है। इस अंक में कई बिल्कुल नए रचनाकार हैं जिनमें बहुत संभावनाएं हैं। इसे संभावनाआें का गुलशन कहा जा सकता है।
नोट : मैं कोई समीक्षक या आलोचक नहीं हंू। न ही मेरा ज्ञान बहुत अधिक है। चूंकि पढ़ने और लिखने की आदत है तो जो पढ़ा उसके बाद जो महसूस किया वह यहां पर लिख दिया।
पहला पुरस्कार मिला है रत्न कुमार सांभरिया की कहानी : बिपर सूदर एक कीने को।
दलित विमर्श की पृष्ठ भूमि वाली यह कहानी बिल्कुल ही अस्वाभाविक लगती है। हो सकता हो कि एक दलित के बेटा के पुलिस आफिसर बन जाने के बाद जो घटना इस कहानी में दिखाया गया है वह सच हो लेकिन कहानी में यह कहीं से भी स्वाभाविक नहीं लगता। सवर्ण मानसिकता वह भी पुजारी की ऐसी नहीं होती कि वह कल तक जिसे अछूत समझ रहा हो उससे संबंध जाे़ड ले। बेशक उस अछूत की सामाजिक हैसियत बदल गई हो। जाति का दंभ इतनी जल्दी नहीं जाता। जाति का अपना मनोविज्ञान है। उच्च जाति का होने का दंभ आदमी को कभी झुकने नहीं देता। समाज शास्त्रीय विश्लेषण भी शायद इस कहानी को उचित नहीं ठहरा पाएगा। ऐसे में इस कहानी को पहला पुरस्कार यों दिया गया समझ में नहीं आया।
दूसरा पुरस्कार दिया गया है अनुराग शु ला की कहानी : लव स्टोरी वाया फ्लेशबैक को।
भाषा और शैली के लिहाज से यह कहानी बेजाे़ड है। लेखक की कल्पनाशि त भी आशा जगाती है कि लेखक आगे चलकर कुछ बेहतर रचनाएं हिंदी साहित्य को देगा। लेखक की यह शायद दूसरी प्रकाशित कहानी है। लेकिन खतरा यह है कि लेखक अति कलावादी हो सकता है। कम से कम उसकी इस कहानी से तो ऐसा ही अभास मिलता है। लेकिन यदि ऐसा नहीं होता तो उसमें काफी संभावनाएं हैं।
तीसरा पुरस्कार दिया गया है कैलाश वानखे़डे की कहानी : अंतर्देशीय पत्र को। यह कहानी बहुत कुछ प्रतीकों में कह जाती है। लेकिन इसमें विखराव बहुत है जो खटकता है। हालांकि यह लेखक की दूसरी कहानी। इस लिहाज से उससे काफी उम्मीदें की जा सकती हैं। उनमें संभावनाएं हैं। हालांकि पुरस्कार जैसी बात समझ में नहीं आती।
पहला सांत्वना पुरस्कार विश्वम्भर त्रिपाठी की कहानी वे हत्यारे को दिया गया है।
इस कहानी की भाषा-शैली और प्रवाह बेजाे़ड है। गांवों में ज्वाला प्रसाद जैसे चरित्र आम हैं। दूसरों की संपत्ति पर धनवान बनने की धनपिपासू लोगों से आज के गांव अटे पड़े हैं। धोखे से दूसरे की जमीन अपने नाम करवा लेना भी आम बात हो गई है। छल-प्रपंच गांवों में इतना हो गया है कि सीधे-साधे लोगों का वहां रहना दूभर हो गया है। इस पृष्ठ भूमि पर यह कहानी अच्छी है, लेकिन इसमें भी अतिशयोि तयां आ जाती हैं। कहीं-कहीं पर अस्वाभाविकता भी तारी है। जिससे प्रवाह बाधित होता है। कहानी का अंत भी सार्थक नहीं लगता। पलायनवादी अंत से लेखक या संदेश देना चाहता है? फिर भी कहानी प्रभावित करती है और अन्य कहानियों की अपेक्षा अधिक स्वाभाविक भी लगती है।
दूसरा सांत्वना पुरस्कार राजेश मलिक की कहानी : टेपका को दिया गया है।
यह कहानी हिजड़ों की दुनयिा का बहुत कुछ सामने लाती है। लेकिन इतने सतहीपन से की प्रभावित नहीं कर पाती। कहीं-कहीं तो यह रिपोर्टिंग सही लगती है। हालांकि लेखक के प्रयास की जितनी सराहना की जाए कम है। ऐसे विषयों पर लिखना एक जोखिम ही है। इसे लेखक ने उठाया है और किसी हद तक कामयाब भी हुआ है। लेखक केसाहस को बधाई देनी चाहिए।
तीसरा सांत्वना पुरस्कार संजय सिंह की कहानी : यूजेनियों मोंताले को जानती है? को दिया गया है। इस कहानी के बारे में मैं कुछ नहीं लिख सकता योंकि इसे मैं पढ़ नहीं पाया। मौका मिला तो पढूंगा जरूर लेकिन तब कुछ टिप्पणी दे पाऊंगा कि नहीं कह नहीं सकता। इस रचनाकार से फिलहाल क्षमा ही मांग सकता हंू।
चौथा सांत्वना पुरस्कार अभिलाष वर्मा की कहानी : प्रो. हाजरा की अजीब दास्तान को दिया गया है।
प्रो. हाजरा की अजीब दास्तान को लेखक रचने में बाखूबी कामयाब हुआ है। चरित्र प्रधान यह कहानी मूलत: प्रेम कहानी है। समाज में ऐसे लोगों की भरमार है जो प्यार तो करते हैं लेकिन व्य त नहीं कर पाते। जिसका परिणाम यह होता है कि उस दर्द को वह पूरी जिंदगी झेलते रहते हैं। एक तरह से उनका व्यि तत्व खंडित हो जाता है। उसकी वजह से वह समाज में परिहास का पात्र भी बन जाते हैं। किसी भी इच्छा का दमन शायद कुंठा को ही जन्म देता है। प्रेम भावना को दबाना तो मनोवैज्ञानिक तौर पर और भी खतरनाक होता है। ऐसा करने पर आदमी में पागलों जैसे लक्षण आ ही जाते हैं। प्रो. हाजरा का चरित्र ऐसा ही है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि कथा देश एक उच्चस्तरीय पत्रिका है। उसकी अपनी एक गरिमा है। उसने यदि इन लेखकों को प्रकाशित किया है तो जाहिर है कि उनमें कुछ खास है। यह तो इन्हें पढ़कर ही महसूस किया जा सकता है। इस अंक में कई बिल्कुल नए रचनाकार हैं जिनमें बहुत संभावनाएं हैं। इसे संभावनाआें का गुलशन कहा जा सकता है।
नोट : मैं कोई समीक्षक या आलोचक नहीं हंू। न ही मेरा ज्ञान बहुत अधिक है। चूंकि पढ़ने और लिखने की आदत है तो जो पढ़ा उसके बाद जो महसूस किया वह यहां पर लिख दिया।
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