- ओमप्रकाश तिवारी
आजकल बहस हो रही है कि या फिल्मी लेखक और गीतकार-साहित्यकार नहीं हैं? वैसे तो यह बहस के लिए कोई मु ा ही नहीं है। लेकिन यह बाजारवाद है, जैसे बाजार में कुछ भी बिक सकता है और बहुत अच्छा नहीं बिकता, वैसे ही बाजारवाद में किसी भी मु े पर बहस की जा सकती है। चाहे वह देश व समाज के लिए जरूरी हो या न हो। ऐसी बहसों को बल मिला है जब से ब्लॉग लेखक पैदा हुए हैं। तकनीक की यह नई विधा बहसों और सूचनाआें के विस्फोट के साथ सामने आई है और विकसित हो रही है। इस विधा में कोई संपादक नहीं है। लिखने वाला ही संपादक है। इस कारण कभी-कभी यह अभिव्यि त की स्वतंत्रा का दायरा ताे़डकर स्वच्छंद हो जाती है।
कहा जा रहा है कि बहस पुरानी है, लेकिन टीवी पत्रकार रवीश कुमार अपने ब्लॉग कस्बा पर इसे फिर से हवा दी है। वह पूछते हैं कि लोकप्रिय गीतकारों, खासकरके फिल्मी गीतकारों को कवि यों नहीं माना जाता? प्रसून जोशी जैसे गीतकारों पर नामवर सिंह जैसे आलोचक यों नहीं लिखते? यों उन्हें साहित्य अकादमी वगैरह पुरस्कार नहीं दिए जाते? और तो और दावा यह भी किया जा रहा है कि बालीवुड के नए गीतकार और पटकथा लेखक इस पतनशील व त में प्रगतिशील रचना कर रहे हैं। या मासूम दावा है, पतनशील व त में प्रगतिशील रचना। जिन लोगों का नाम लेकर यह दावा किया गया है उन्हें यदि प्रगतिशील मान लिया जाए तो शायद प्रगतिशील शब्द के नए अर्थ गढ़ने पड़ेंगे। प्रगतिशीलता को फिर से परिभाषित करना पड़ेगा।
रवीश कुमार अच्छे फीचर राइटर हैं। उन्हें अपनी स्टोरी को इस पतनशील व त में बेचना आता है। जी हां, बेचना ही कहेंगे इसे, योंकि यदि उनकी स्टोरी को टीआरपी न मिले तो उसकी कोई बाजार वैल्यू नहीं रह जाती। फिर वही लोकप्रिय स्टोरियां रद्दी की टोकरी में फेंक दी जाती हैं। जो लोकप्रिय है वह अच्छा हो, प्रगतिशील हो यह जरूरी नहीं है। लोकप्रियता को प्रगतिशीलता का जामा पहनाना नदानी होगी। रवीश कुमार खुद कोई प्रगतिशील फीचर स्टोरी तैयार करें और यदि वह बाजार के मानकों को नहीं पूरा करेगी तो उसका प्रसारण नहीं किया जाएगा। अपने अब तक केकैरियर में वह इस बात को कई बार महसूस भी कर चुके होंगे। यदि अपनी सभी भावनाआें और संवेदनाआें को वह लोकप्रिय बनाकर टीवी पर बेच पाते तो शायद उन्हंे ब्लॉग लेखक न बनना पड़ता। जाहिर है कि रवीश कुमार ने एक अलग दुनिया को एक दूसरी दुनिया में घुसे़डने का प्रयास किया है। बताने की जरूरत नहीं है कि फिल्मी दुनिया एक अलग दुनिया है तो साहित्य की दुनिया उससे बिल्कुल अलग है। फिल्मी दुनिया के लोग स्टार कहे जाते हैं और लाखों-कराे़डों रुपयों में खेलते हैं। जबकि साहित्य जगत के लोग खास करके हिंदी साहित्य के किसी लेखक के लिए तो हजारों रुपये मिलना भी किसी सपने के समान होता है। फिल्मी दुनिया में ग्लैमर है, पैसा है और स्टारडम है। यह लोग इंसान की भावनाआें और संवेदनाआें का धंधा करते हैं। अ सर इनका कोई सामाजिक सरोकार भी नहीं होता। समाज, देश, भावना और संवेदना का इस्तेमाल यह लोग पैसा कमाने के लिए करते हैं। यह कितना अजीब लगता है कि हिंदी की रोटी खाने वाले अभिनेता, अभिनेत्रियां और फिल्मी दुनिया के अन्य लोग अंग्रेजी में ही गिटिर-पिटिर करते हैं।
साहित्यकार का सरोकार समाज, इंसान, देश-दुनिया से जु़डा होता है, बाजार से नहीं। साहित्यकार मूल्यों की रचना समाज और देश को ध्यान में रखकर करता है। जबकि फिल्मी लेखक की रचाना बाजार आधारित होती है। वह अपनी रचना का मूल्य बाजार से वसूल लेता है। जो फिल्मी राइटर ऐसा नहीं कर पाता वह फ्लाप घोषित कर दिया जाता है और उसका कैरियर चौपट हो जाता है।
प्रसून जोशी लोकप्रिय फिल्मी गीतकार हैं तो उन पर नामवर सिंह यों लिखें? उन पर लिखने के लिए रवीश कुमार तो हैं! प्रसून जोशी जब मनोहर श्याम जोशी जैसा कुछ करेंगे, रचेंगे तब उन पर नामवर सिंह लिखेंगे। वैेसे भी लोकप्रियता को यदि प्रतिशीलता का पैमाना माना जाए तो सुरेंद्र मोहन पाठक, ओम प्रकाश शर्मा और वेद प्रकाश शर्मा जैसे लेखकों को पहले प्रगतिशील मानना पड़ेगा और नामववार सिंह को पहले उन पर लिखना पड़ेगा। साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ तथा अन्य पुरस्कारों के लिए इनकी दावेदारी प्रसून जोशी व अन्य फिल्मी लेखकों से शायद अधिक मजबूत होगी।
जिस तरह फिल्म फेयर पुरस्कार किसी साहित्यकार को नहीं मिल सकता, उसी तरह किसी फिल्मी लेखक को साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं मिल सकता और मिलना भी नहीं चाहिए। मूल्यों का सृजन करने वाले और सृजित मूल्यों को बेचने वालों की तुलना कैसे की जा सकती है? एक सृजनकर्ता है और एक सेल्समैन।
आजकल बहस हो रही है कि या फिल्मी लेखक और गीतकार-साहित्यकार नहीं हैं? वैसे तो यह बहस के लिए कोई मु ा ही नहीं है। लेकिन यह बाजारवाद है, जैसे बाजार में कुछ भी बिक सकता है और बहुत अच्छा नहीं बिकता, वैसे ही बाजारवाद में किसी भी मु े पर बहस की जा सकती है। चाहे वह देश व समाज के लिए जरूरी हो या न हो। ऐसी बहसों को बल मिला है जब से ब्लॉग लेखक पैदा हुए हैं। तकनीक की यह नई विधा बहसों और सूचनाआें के विस्फोट के साथ सामने आई है और विकसित हो रही है। इस विधा में कोई संपादक नहीं है। लिखने वाला ही संपादक है। इस कारण कभी-कभी यह अभिव्यि त की स्वतंत्रा का दायरा ताे़डकर स्वच्छंद हो जाती है।
कहा जा रहा है कि बहस पुरानी है, लेकिन टीवी पत्रकार रवीश कुमार अपने ब्लॉग कस्बा पर इसे फिर से हवा दी है। वह पूछते हैं कि लोकप्रिय गीतकारों, खासकरके फिल्मी गीतकारों को कवि यों नहीं माना जाता? प्रसून जोशी जैसे गीतकारों पर नामवर सिंह जैसे आलोचक यों नहीं लिखते? यों उन्हें साहित्य अकादमी वगैरह पुरस्कार नहीं दिए जाते? और तो और दावा यह भी किया जा रहा है कि बालीवुड के नए गीतकार और पटकथा लेखक इस पतनशील व त में प्रगतिशील रचना कर रहे हैं। या मासूम दावा है, पतनशील व त में प्रगतिशील रचना। जिन लोगों का नाम लेकर यह दावा किया गया है उन्हें यदि प्रगतिशील मान लिया जाए तो शायद प्रगतिशील शब्द के नए अर्थ गढ़ने पड़ेंगे। प्रगतिशीलता को फिर से परिभाषित करना पड़ेगा।
रवीश कुमार अच्छे फीचर राइटर हैं। उन्हें अपनी स्टोरी को इस पतनशील व त में बेचना आता है। जी हां, बेचना ही कहेंगे इसे, योंकि यदि उनकी स्टोरी को टीआरपी न मिले तो उसकी कोई बाजार वैल्यू नहीं रह जाती। फिर वही लोकप्रिय स्टोरियां रद्दी की टोकरी में फेंक दी जाती हैं। जो लोकप्रिय है वह अच्छा हो, प्रगतिशील हो यह जरूरी नहीं है। लोकप्रियता को प्रगतिशीलता का जामा पहनाना नदानी होगी। रवीश कुमार खुद कोई प्रगतिशील फीचर स्टोरी तैयार करें और यदि वह बाजार के मानकों को नहीं पूरा करेगी तो उसका प्रसारण नहीं किया जाएगा। अपने अब तक केकैरियर में वह इस बात को कई बार महसूस भी कर चुके होंगे। यदि अपनी सभी भावनाआें और संवेदनाआें को वह लोकप्रिय बनाकर टीवी पर बेच पाते तो शायद उन्हंे ब्लॉग लेखक न बनना पड़ता। जाहिर है कि रवीश कुमार ने एक अलग दुनिया को एक दूसरी दुनिया में घुसे़डने का प्रयास किया है। बताने की जरूरत नहीं है कि फिल्मी दुनिया एक अलग दुनिया है तो साहित्य की दुनिया उससे बिल्कुल अलग है। फिल्मी दुनिया के लोग स्टार कहे जाते हैं और लाखों-कराे़डों रुपयों में खेलते हैं। जबकि साहित्य जगत के लोग खास करके हिंदी साहित्य के किसी लेखक के लिए तो हजारों रुपये मिलना भी किसी सपने के समान होता है। फिल्मी दुनिया में ग्लैमर है, पैसा है और स्टारडम है। यह लोग इंसान की भावनाआें और संवेदनाआें का धंधा करते हैं। अ सर इनका कोई सामाजिक सरोकार भी नहीं होता। समाज, देश, भावना और संवेदना का इस्तेमाल यह लोग पैसा कमाने के लिए करते हैं। यह कितना अजीब लगता है कि हिंदी की रोटी खाने वाले अभिनेता, अभिनेत्रियां और फिल्मी दुनिया के अन्य लोग अंग्रेजी में ही गिटिर-पिटिर करते हैं।
साहित्यकार का सरोकार समाज, इंसान, देश-दुनिया से जु़डा होता है, बाजार से नहीं। साहित्यकार मूल्यों की रचना समाज और देश को ध्यान में रखकर करता है। जबकि फिल्मी लेखक की रचाना बाजार आधारित होती है। वह अपनी रचना का मूल्य बाजार से वसूल लेता है। जो फिल्मी राइटर ऐसा नहीं कर पाता वह फ्लाप घोषित कर दिया जाता है और उसका कैरियर चौपट हो जाता है।
प्रसून जोशी लोकप्रिय फिल्मी गीतकार हैं तो उन पर नामवर सिंह यों लिखें? उन पर लिखने के लिए रवीश कुमार तो हैं! प्रसून जोशी जब मनोहर श्याम जोशी जैसा कुछ करेंगे, रचेंगे तब उन पर नामवर सिंह लिखेंगे। वैेसे भी लोकप्रियता को यदि प्रतिशीलता का पैमाना माना जाए तो सुरेंद्र मोहन पाठक, ओम प्रकाश शर्मा और वेद प्रकाश शर्मा जैसे लेखकों को पहले प्रगतिशील मानना पड़ेगा और नामववार सिंह को पहले उन पर लिखना पड़ेगा। साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ तथा अन्य पुरस्कारों के लिए इनकी दावेदारी प्रसून जोशी व अन्य फिल्मी लेखकों से शायद अधिक मजबूत होगी।
जिस तरह फिल्म फेयर पुरस्कार किसी साहित्यकार को नहीं मिल सकता, उसी तरह किसी फिल्मी लेखक को साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं मिल सकता और मिलना भी नहीं चाहिए। मूल्यों का सृजन करने वाले और सृजित मूल्यों को बेचने वालों की तुलना कैसे की जा सकती है? एक सृजनकर्ता है और एक सेल्समैन।
टिप्पणियाँ
और ऐसा भी नहीं है कि ब्लॉग में उनकी बिना बिकी संवेदनाएँ ही हैं। ब्लॉग में भी उनकी व्यूअरशिप बहुत हाई है या यों कहें कि उनका माल यहाँ भी खूब बिक रहा है।
आपका कहना बिलकुल सही है कि यह फिल्मों वाले भावनाओं और संवेदनाओं का धंधा करते हैं। और साहित्य वाले? धंधा तो वह भी करते हैं, पर उनकी दुकान चलती नहीं है।
"प्रसून जोशी लोकप्रिय फिल्मी गीतकार हैं तो उन पर नामवर सिंह क्यों लिखें? उन पर लिखने के लिए रवीश कुमार तो हैं!"
लो आपने स्वयं ही विकल्प भी सुझा दिया।