ऐसे दौर में जबकि पुरस्कारों की विश्वसनीयता पर ही सवाल उठ रहे हों तब कथादेश की कहानी प्रतियोगिता में ढाई सौ कहानीकारों का शामिल होना चौंकाता है। बहुतेरे लेखकों को यह भलिभांति मामलू होता है कि प्रतियोगिता में उसकी रचना को पहले ही छांट दिया जाएगा। यही नहीं पुरस्कार किसी पप्पू को ही दिया जाएगा, तब भी प्रतियोगिता में शामिल होने का ऐसा उत्साह क्या आश्चर्यचकित नहीं करता?
हिंदी साहित्य में पुरस्कारों की विश्वसनीयता पर हमेशा ही सवाल उठते रहे हैं लेकिन आज तो हालत यह हो गई है कि जब किसी लेखक को पुरस्कार मिलता है तो पहला सवाल यही मन में आता है कि इसने मैनेज कर लिया। आज के दौर की यह एक हकीकत है कि हिंदी साहित्य में पुरस्कार मैनेज किए जा रहे हैं। कई पत्रिकाओं के संपादक और लेखक इस भूमिका को बखूबी निभा रहे हैं।
पिछले दिनों एक गरिमापूर्ण संस्थान ने एक पचास हजार रुपये वाली नवलेखन प्रतियोगिता आयोजित की। उसमें कितने नवलेखकों ने भाग लिया यह तो नहीं मालूम लेकिन पुरस्कार उसे मिला जो उसी संस्थान में काम करता है और पत्रिका के संपादक का पालक-बालक है। चूंकि वह एक पत्रिका में काम करता है और संपादक का पप्पू है तो बहुतेरे लेखकों और समालोचकों के लिए वह वैसे ही श्रेष्ठ लेखक हो गया। वह जो भी लिखता है वह रचना कालजयी हो जाती है। पुरस्कार की बात तो बेइमानी है। यह भी हमारे हिंदी समाज की एक संस्कृति है। चाटूकारिता, जुगाड़बाजी और मठाधीशी हमारी संस्कृति के अहम तत्व बनते जा रहे हैं। किसी भी क्षेत्र में आपकों यदि सफल होना है तो इन गुणों को आत्मसात करना ही होगा। नहीं तो पड़े रहिए एक कोने में। क्या यह बेशर्मी की पराकाष्ठा नहीं है? ऐसे लोगों के सामने तो बेहया भी शरमा जाता है।
हालांकि हिंदी साहित्य जगत में इस संस्थान की काफी गरिमा है। यह हर साल लखटकिया पुरस्कार भी हिंदी के लेखकों के लिए घोषित करता है। जिसे यह पुरस्कार मिल जाता है हिंदी साहित्य में उसकी हैसियत बढ़ जाती है और वह अचानक बड़ा लेखक बन जाता है।
लेकिन यह गरिमा कितनी गरिमामय है यह इसी बात से समझा जा सकता है कि इस संस्थान के ट्रष्टियों को भी इस बात की जानकारी थी कि संस्थान का ही एक कर्मचारी जो संपादक का पालक-बालक है, उसके द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में न केवल भाग ले रहा है, बल्कि कार्यालय में ही बैठकर रचना को रच भी रहा है। साथ ही यह दावा भी कर रहा है कि पुरस्कार तो उसे ही मिलेगा। यही नहीं पत्रिका के संपादक ने पुरस्कार उसे देने के लिए पूरी तैयारी भी कर ली है। इसके बावजूद उन्होंने हस्तक्षेप नहीं किया। हां, बेशर्मी को कम करने के लिए इतना जरूर किया गया कि संपादक के पप्पू के साथ एक अन्य लेखक को भी जोड़ दिया गया। इस तरह पचास हजार का पुरस्कार दो लोगों में बंट गया। ऐसे में पालक-बालक का नाराज होना लाजिमी था। वह गुस्से में लालपीला हो गया। उसका दावा था कि उसके हक को बांट दिया गया। उसे इस बात की कोई शर्म नहीं थी, न ही है कि वह उस संस्थान में न केवल काम करता है बल्कि उसने प्रतियोगिता में शामिल पांडुलिपियों का आंतरिक मूल्यांकन भी किया। सोचा जा सकता है कि जिस प्रतियोगिता में कोई खुद प्रतिभागी हो वह किसी दूसरे रचनाकार की रचना का क्या मूल्यांकन करेगा? लेकिन नहीं, ऐसे संस्थानों की गरिमा शायद ऐसे ही कारनामों से सृजित होती है।
दरअसल, हिंदी साहित्य में कई जुंड़लियां सक्रिय हैं। कई मठ और उनके मठाधीश हैं। हर मठाधीश अपने-अपने पप्पुओं को पुरस्कृत कर रहा है। यदि कोई लेखक किसी मठाधीश का पप्पू है तो वह महान लेखक हो जाता है। यदि वह किसी मठाधीश का पप्पू नहीं है तो उसकी रचनाएं रद्दी की टोकरी के लायक भी नहीं समझीं जातीं।
बहरहाल, यह तो नहीं कह सकता कि कथादेश की प्रतियोगिता कितनी निष्पक्ष है लेकिन पुरस्कृत कहानियों पर जरूर विचार-विमर्श किया जा सकता है। प्रतियोगिता की पहले पुरस्कार से सम्मानित कहानी है पानी-पानी। लेखक हैं प्रेम रंजन अनिमेष। कहानी मुझे कैसी लगी इस पर समालोचना अगली पोस्ट में।
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