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कविता/सवाल

कुछ पसंद नहीं आना मन का उदास हो जाना बेमतलब ही गुस्सा आना हां न कि भी बातें न करना हर पल आंखें बंद रखना रोशनी में आंखें मिचमिचना बिना पत्तों वाले पेड़ निहारना गिरते हुए पीले पत्तों को देखना भाव आएं फिर भी कुछ न लिखना अच्छी किताब को भी न पढ़ना किताब उठाना और रख देना उंगलियों से कुछ टाइप न करना उगते सूरज पर झुंझला पड़ना डूबते सूरज को हसरत से देखना चाहत अंधेरे को हमसफ़र बनाना खुद को तम में विलीन कर देना ये हमको हुआ क्या जरा बताना समझ में आये तो जरा समझना गीत कोई तुम ऐसा जो गाना शब्दों को सावन की तरह बरसाना बूंद बूंद से पूरा बदन भिगो देना हसरतों को इस कदर बहाना चलेगा नहीं यहां कोई बहाना #ओमप्रकाश तिवारी
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कविता, डर

डर ---- तेज बारिश हो रही है दफ्तर से बाहर निकलने पर उसे पता चला घर जाना है बारिश है अंधेरा घना है बाइक है लेकिन हेलमेट नहीं है वह डर गया बिना हेलमेट बाइक चलाना खतरे से खाली नहीं होता दो बार सिर को बचा चुका है हेलमेट शायद इस तरह उसकी जान भी फिर अभी तो बारिश भी हो रही है और रात भी सोचकर उसका डर और बढ़ गया बिल्कुल रात के अंधेरे की तरह उसे याद आया किसी फिल्म का संवाद जो डर गया वह मर गया वाकई डरते ही आदमी सिकुड़ जाता है बिल्कुल केंचुए की तरह जैसे किसी के छूने पर वह हो जाता है इंसान के लिए डर एक अजीब बला है पता नहीं कब किस रूप में डराने आ जाय रात के अंधेरे में तो अपनी छाया ही प्रेत बनकर डरा जाती है मौत एक और डर कितने प्रकार के हैं कभी बीमारी डराती है तो कभी महामारी कभी भूख तो कभी भुखमरी समाज के दबंग तो डराते ही रहते हैं नौकरशाही और सियासत भी डराती है कभी रंग के नाम पर तो कभी कपड़े के नाम पर कभी सीमाओं के तनाव के नाम पर तो कभी देशभक्ति के नाम पर तमाम उम्र इंसान परीक्षा ही देता रहता है डर के विभिन्न रूपों का एक डर से पार पाता है कि दूसरा पीछे पड़ जाता है डर कभी आगे आगे चलता है तो कभी पीछे पीछे कई

केवल संख्या मत बनिये

आप कृष्णा बेउरा को जानते हैं? हो सकता है कि जानते हों, लेकिन मैं नहीं जानता। इनकी शिकायत है कि इनके फेसबुक पेज पर 80 फीसदी लोग केवल संख्या बढ़ाने के लिए हैं। इनकी यह बात बिल्कुल सही है क्योंकि मेरे फ्रेंड सर्कल का यही हाल है। यहां आभासी संसार में लोग अनजान को भी दोस्ती के सर्कल में ले लेंगे लेकिन उससे कोई वास्ता नहीं रखते। यह बात वाकई समझ में नहीं आती कि जब आपका मुझसे कोई लेनादेना नहीं है या मेरे लिखे में कोई दिलचस्पी नहीं है तो मेरे घेरे में क्यों है या अपने घेरे में मुझे क्यों ले रखा है?  मेरे एक बड़े भाई जैसे मित्र ने एक दिन कहा कि मैंने लिखना बन्द कर दिया। बोले कोई पढ़ता ही नहीं तो लिखने का क्या फायदा? बात तो सही है। लेकिन यदि ऐसा ही सब सोच लें तो कम से कम हिंदी में तो कोई नहीं लिखेगा। सबको पता है कि हिंदी में कोई किसी को नहीं पढ़ता। फिर इतना लिखा क्यों जा रहा है? कुछ यूं ही लिख रहे हैं। कुछ उनके लिए लिख रहे हैं। कुछ अपने लिए लिख रहे हैं। कुछ इसलिए लिखते हैं कि बिना लिखे रहा नहीं जाता। कुछ तिकड़मबाजी के लिए लिखते हैं। कुछ पुरस्कार के लिए तो कुछ मठाधीश को प्रसन्न करने के लिए। सबकी लिखने