लोकपाल का मामला एक बार फिर उठा है। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से लोकपाल की नियुक्ति में देरी का कारण बताने को कहा है। पिछले दिनों अदालत ने महान्यायवादी हरीश साल्वे से पूछा कि अखबार खोलने पर रोज एक नया घोटाला सामने आता है , तो ऐसे में क्या यह ठीक नहीं होगा कि सार्वजनिक जीवन में पांव पसारते भ्रष्टाचार के मद्देनजर लोकपाल की नियुक्ति कर दी जाए। इस पर श्री साल्वे ने पिछले साल लोकसभा में पेश हो चुके लोकपाल विधेयक का जिक्र किया। अब देखना यह है कि सरकार क्या कदम उठाती है।
यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि जो काम सरकार को करना चाहिए , उसकी याद अदालत दिला रही है। इससे तो यही लगता है कि वह अपने कर्तव्यों का सही तरह से पालन नहीं कर रही है। आखिरकार लोकपाल की कल्पना इसीलिए की गई थी कि हर रोज हो रहे घोटालों पर अंकुश लगाया जा सके , लेकिन यह कल्पना आज तक मूर्त रूप महज इसलिए नहीं ले पाई क्योंकि राजनेता ऐसा नहीं चाहते। यही कारण है कि लोकपाल पर चर्चा होती है , लोकसभा में विधेयक भी पेश हो जाता है , लेकिन कोई न कोई ऐसी अड़चन डाल दी जाती है कि वह पारित नहीं हो पाता। ऐसा देखा गया है कि लोकपाल विधेयक को ऐसे अवसर पर पेश किया जाता है कि उस पर बहस के लिए समय ही नहीं मिलता और बात आई-गई हो जाती है। दरअसल हमारे राजनेताओं के लिए लोकपाल बोतल में बंद उस जिन्न की तरह है , जो बाहर निकलते ही पलट कर मार कर सकता है।
14 अगस्त 2001 को संसद के मानसून सत्र में लोकपाल विधेयक 2001 पेश करके प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस संस्था के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का इजहार किया , लेकिन इससे पहले कि यह विधेयक पारित हो पाता सत्र खत्म हो गया। उसके बाद किसी ने याद भी नहीं किया कि ऐसा विधेयक पेश किया गया था। इससे इन आरोपों को बल मिला है कि इस विधेयक को पेश करने के पीछे सरकार की मंशा कुछ और थी। उस वक्त भ्रष्टाचार को लेकर वाजपेयी सरकार पर लगातार उंगलियां उठ रही थीं। यूटीआई मामले में उनके कार्यालय पर आरोप लगे थे और उन्होंने अपने पद से इस्तीफे की धमकी दे दी थी। इसलिए जब लोकपाल विधेयक संसद में पेश किया गया तो बहुत से लोगों ने सोचा कि यह बढ़ते भ्रष्टाचार से जनता का ध्यान हटाने के लिए उठाया गया कदम है। बावजूद इसके यदि यह विधेयक संसद में पास हो जाता और लोकपाल नामक संस्था अस्तित्व में आ जाती , तो इससे जनता को कुछ उम्मीद बंधती , क्योंकि इसमें प्रधानमंत्री तक को जांच के दायरे में लाया गया था।
इस विधेयक के अनुसार लोकपाल और इसके सदस्यों की नियुक्ति राष्ट्रपति एक समिति की सिफारिश के आधार पर करेंगे। उपराष्ट्रपति , प्रधानमंत्री , लोकसभा अध्यक्ष , गृहमंत्री , सदन के नेता तथा लोकसभा और राज्यसभा में विपक्ष के नेता इस समिति के सदस्य होंगे। लोकपाल की जांच के दायरे में प्रधानमंत्री सहित मंत्रिपरिषद के सदस्यों , सांसदों और सरकारी कर्मियों को रखा गया था। विधेयक के मुताबिक लोकपाल भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम 1988 के तहत मिली शिकायतों के आधार पर सार्वजनिक पद पर बैठे किसी भी व्यक्ति के खिलाफ जांच कर सकता है। लोकपाल को यह न्यायिक अधिकार होगा कि वह किसी भी व्यक्ति को सम्मन भेजकर हाजिर होने , किसी दस्तावेज को मांगने और साक्ष्य लेने का आदेश जारी कर सकता है। लोकपाल की जांच के दायरे से सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश , निर्वाचन आयुक्तों तथा अन्य संवैधानिक पदाधिकारियों को बाहर रखा गया है। उल्लेखनीय है कि ऐसा पहली बार था कि लोकपाल को कुछ अधिकार दिए गए थे , नहीं तो इससे पहले जितनी बार भी यह विधेयक लोकसभा में पेश किया गया , उसे शक्तिहीन बनाए रखने का पूरा प्रावधान किया गया था।
इस बार जब लोकपाल विधेयक संसद में पेश किया गया था तो कांग्रेस ने भी इसका समर्थन किया था , लेकिन यह पारित नहीं हो पाया। तब से कोई इसकी सुध नहीं ले रहा है। यदि हमारे राजनेताओं में भ्रष्टाचार से लड़ने की इच्छाशक्ति होती और वे सचमुच इस पर अंकुश लगाना चाहते , तो उनकी प्राथमिकता सूची में लोकपाल विधेयक होना चाहिए था।
1969 से लेकर अब तक आठ बार लोकपाल विधेयक संसद में पेश किया गया है। मोरारजी देसाई की अध्यक्षता वाले प्रशासनिक सुधार आयोग ने नागरिकों की शिकायतें दूर करने के बारे में अपनी अंतरिम रिपोर्ट 1966 में दी थी , जिसमें अन्य बातों के अलावा स्वीडन के ओम्बड्समैन की तरह लोकपाल संस्था स्थापित करने की सिफारिश थी। आयोग की इस सिफारिश पर अमल करते हुए पहली बार चौथी लोकसभा में 1968 में विधेयक पेश किया गया। यह 1969 में पारित भी हो गया , लेकिन राज्यसभा की मंजूरी मिलने से पहले लोकसभा ही भंग हो गई। इसके बाद इसे 1971 में पांचवीं लोकसभा में फिर पेश किया गया। फिर इसे संयुक्त संसदीय समिति के पास भेजा गया। समिति ने जुलाई 1978 में अपनी रिपोर्ट भी दे दी , लेकिन जब इस रिपोर्ट पर लोकसभा में चर्चा हो रही थी , तभी लोकसभा फिर भंग हो गई। इसके बाद इसे 1985 में आठवीं लोकसभा में लाया गया , लेकिन फिर वापस ले लिया गया। इसे 1989 में फिर लोकसभा में पेश किया गया। इस बार इसके जांच के दायरे में प्रधानमंत्री को भी लाया गया था , लेकिन नौवीं विधानसभा के भंग होने से यह प्रस्ताव निरस्त हो गया। 13 सितंबर 1996 को 11 वीं लोकसभा में एक बार फिर लोकपाल विधेयक प्रस्तुत किया गया। इसे गृह मंत्रालय से जुड़ी संसद की स्थायी समिति को जांच करने और रिपोर्ट देने के लिए सौंपा गया। समिति ने 9 मई 1997 को अपनी रिपोर्ट दे दी , लेकिन इससे पहले कि सरकार उसकी सिफारिशों को अमली जामा पहना पाती , लोकसभा भंग हो गई। यही हाल इसका 12 वीं लोकसभा में हुआ , जब संसदीय समिति की रिपोर्ट पर विचार होने से पहले ही लोकसभा भंग हो गई। लेकिन आठवीं बार लोकसभा तो सही सलामत रही , पर नेताओं में ही इस पर एका नहीं बन पाया।
ऐसे में यह मानना सही होगा कि लोकपाल विधेयक पेश करने का मकसद भ्रष्टाचार से सचमुच लड़ना नहीं , लड़ते हुए दिखना भर है। भ्रष्टाचार सिर्फ भारत की ही नहीं , एक वैश्विक समस्या है। इसलिए दूसरे देशों में इससे लड़ने के लिए हो रही कोशिशें हमारे लिए गौर करने लायक हैं। स्वीडन में 1909 में ओम्बुड्समैन नामक संस्था की परिकल्पना की गई , जिसे 1919 में फिनलैंड ने मूर्त रूप दिया। इसके बाद 1955 में डेनमार्क ने , 1962 में न्यूजीलैंड ने और 1964 में ब्रिटेन ने इसे अपनाया। अलबत्ता इन सभी देशों में इसका उद्देश्य समान होते हुए भी रूप भिन्न है। यानी सभी ने अपनी-अपनी जरूरतों के हिसाब से इसे लागू किया।
भारत में तो आजादी के बाद से ही लोकपाल की आवश्यकता महसूस की जाने लगी थी , क्योंकि हमें जो सत्ता अंग्रेजों ने हस्तांतरित की थी , उसकी बुनियाद ही भ्रष्टाचार पर टिकी थी। स्वाभाविक ही था कि आजादी के साथ हमें भ्रष्टाचार भी मिला। इससे जूझने के लिए लोकपाल की जरूरत महसूस की गई , लेकिन राजनीतिक स्वार्थों ने इसे हकीकत में बदलने नहीं दिया। अब जबकि अदालत ने सरकार से इस बारे में पूछा है , तो देखना यह है कि वह क्या कदम उठाती है। लेकिन इतना तो तय ही है कि इसके प्रति सरकार ही नहीं , विपक्ष का भी उदासीन रवैया परेशान करने वाला है।
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