मुख्य चुनाव आयुक्त डाक्टर एसवाई कुरैशी ने पिछले दिनों कहा कि पूरी दुनिया इस बात की तारीफ करती है कि भारत जैसे विविधता वाले और ७१ करोड़ से अधिक मतदाता वाले देश में सफलतापूर्वक चुनाव सम्पन्न हो जाते हैं। लेकिन जब वह यह कहते हैं कि आपकी व्यवस्था में अपराधी संसद और विधानसभाओं में चुनकर क्यों आ जाते हैं, तो हमारा सिर शर्म से झुक जाता है। उन्हें यह तर्कसंगत नहीं लगता कि कानून के अनुसार अंतिम अपील कोर्ट में दोषी सिद्ध होने तक किसी को दोषी नहीं माना जा सकता।
इस द्वंद्व और अंतर्विरोध को हम इस तरह से समझ सकते हैं। जिसकी जैसी मानसिकता उसका आचारण भी वैसा ही होता है। आदमी के आचारण में ही उसकी मानसिकता परिलक्षित होती है। भ्रष्ट मानसिकता वाला भ्रष्टाचार की संस्कृति को ही पुष्पित-पल्वित करता है। अपराध की मानसिकता वाला अपराध की गंगा-जमुना बहाने में ही पूरी जिंदगी लगा रहता है। इसी तरह अपराधी और भ्रष्टाचारी के आचरण से ही हम उसकी मानसिकता को समझ सकते हैं। ऐसी मानसिकता और ऐसे आचरण वाले किसी भी सभ्य समाज के लिए कलंक होते हैं। इसलिए ऐसे लोगों की जगह नागरिक समाज में नहीं होनी चाहिए। बेशक इस तरह के अधिकतर लोग कानून के दायरे से या तो बाहर होते हैं या फिर दांव-पेंच से खुद को बेहतर नागरिक साबित करने में लगे रहते हैं। ऐसे लोगों का कथन होता है कि जब तक उन्हें अदालत से सजा नहीं मिल जाती उन्हें दोषी नहीं माना जा सकता। कानूनन वह सही होते हैं लेकिन उनका आचरण उन्हें गलत साबित कर रहा होता है। कानून की प्रक्रिया इतनी लंबी और जटिल होती है कि ऐसे लोगों को कानून के शिकंजे में कसने में बहुत समय लग जाता है। कानूनी प्रक्रिया में बहुत सारे लोग शाम-दाम-दंड-भेद की नीति अपना कर बइज्जत बरी भी हो जाते हैं। कुछ ही होते हैं जिन पर कानून अपना शिकंजा कस पाता है। कई बार इसमें अंतर करना मुश्किल हो जाता है कि जो बइज्जत बरी हो गया है वह वाकई दोषमुक्त है। अथवा जो दंडित हुआ है वाकई दोषी है। इसका यह मतलब नहीं है कि कानूनी प्रक्रिया नहीं अपनानी चाहिए। तमाम खामियों के बावजूद इसका कोई विकल्प नहीं है। लेकिन मानसिकता और आचरण से किसी का कृत्य छिपा नहीं रहता। ऐसे लोगों को कानून बेशक पाक-साफ घोषित कर दे लेकिन समाज में न तो उन्हें प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए और न ही महत्वपूर्ण दायित्व।
मुख्य चुनाव आयुक्त डा. कुरैशी पूछते हैं कि बिना दोष सिद्ध हुए जेलों में २,५७,९५८ लोग बंद हैं लेकिन उनके जैसे आरोपी नेता बनकर सारी सुविधाएं क्यों भोग रहे हैं? इस तरह आम आदमी की स्वतंत्रता का हनन क्यों किया जा रहा है? वह कहते हैं कि इस सवाल पर न्यायपालिका और संसद में बहस होनी चाहिए। बहस न्यायपालिका और संसद में ही नहीं समाज में भी होनी चाहिए। आखिरकार ऐसे लोगों को दंडि़त करने की अंतिम जिम्मेवारी समाज की ही है।
हाल ही में ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल सर्वे की रिपोर्ट आई है, जिसमें सबसे ज्यादा भ्रष्ट राजनीतिक दलों को बताया गया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत के लोग सियासी दलों के बाद पुलिस को सबसे अधिक भ्रष्ट मानते हैं। उसके बाद सांसद, फिर सरकारी अधिकारी, उसके बाद शिक्षा विभाग और फिर उद्योगपति हैं। ऐसे लोगों के मामले अदालतों में बेशक लंबित हों लेकिन उनके आचरण के आधार पर तो उन्हें संसद या विधानसभाओं में जाने से रोका ही जाना चाहिए। यदि ऐसे लोग संसद या विधानसभाओं में जाते हैं तो हम एक बेहतर समाज की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?
सच तो यह है कि देश का बहुत बड़ा वर्ग केवल वोटर बनकर रह गया है। हमारे नेता उनसे वोट लेते हैं और फिर उन्हें भूल जाते हैं। संसद और विधानसभाओं में पहुंचने वाले लोग अपनी कमाई दोगुनी और चौगुनी करने में लग जाते हैं। उनके इर्दगिर्द ऐसे लोगों की चौकड़ी जमा हो जाती है जिनका मकसद अपना स्वार्थ साधना होता है। ऐसे में आम लोग हाशिए पर चले जाते हैं। यह अकारण नहीं है कि देश की आधे से अधिक आबादी गरीबी की नाली में कीड़े-मकोड़े की तरह बिलबिला रही है और मुठ्ठी भर लोग ऐश कर रहे हैं। सड़कों पर कुछ लोगों की चमचमाती कारों की वजह से आम आदमी का पैदल चलना दूभर हो गया है। बसों और ट्रेनों में आम आदमी पशुवत यात्रा कर रहा है और इवाई जहाज का किराया बढ़ जाता है तो सरकार की त्योरी चढ़ जाती है और हवाई कंपनियों को किराया कम करना पड़ता है। दूसरी ओर आम आदमी की बुनियादी वस्तुओं की कीमतें आसमान को छू रही होती हैं और सरकार के कान पर जंू तक नहीं रेंगती। सत्ता और समाज के प्रभु वर्ग में ऐसी सांठगांठ हो गई है कि आम आदमी की सिसकियां न तो किसी को सुनाई दे रही हैं और न ही उसका आंसू किसी को दिखाई दे रहा है।
भ्रष्टाचार में सियासी दल पहले तो सांसद तीसरे नंबर पर क्यों हैं? यह ऐसा सवाल है जिसका जवाब राजनीतिक दलों और सांसदों को ही देना होगा। समय रहते यदि उन्होंने इसका उत्तर नहीं दिया तो वक्त उन्हें खुद ही जवाब दे देगा। जब से मानव सभ्यता ने इस धरती पर जन्म लिया है तब से कई सभ्यताएं आईं और गर्इं। वर्तमान व्यवस्था भी कोई अपवाद नहीं होगी। इसे बचना है तो इस बात को स्वीकार करना होगा कि जिन राजनेताओं पर आरोपपत्र दाखिल हो गए हैं और जिनके खिलाफ अदालत में कार्यवाही चल रही है उन्हें चुनाव से दूर ही रखा जाए। इसके अलावा आम लोगों को भी भ्रष्टचारियों और दागियों से घृणा करनी होगी चाहे वह किसी भी वर्ग का हो। जिनके आचरण को हम गलत मानते हैं उनके हाथों में सत्ता सौंपने का मतलब है अपना मर्सिया खुद पढऩा। जैसा कि आजकल हम देख रहे हैं। आदर्श हाउसिंग सोसाइटी घोटाला, कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला और टूजी स्पेक्ट्रम घोटाला, खाद्यान्न घोटाला, जमीन घोटाला तो इसकी ताजा मिसाल हैं। इन सब मामलों में लिप्त लोगों को कानून बेशक पाक-साफ घोषित कर दे लेकिन ऐसे लोगों का आचरण समाज में मान-सम्मान और प्रतिष्ठा पाने के लायक तो कदापि भी नहीं है।
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